SHAHDOL : 105 साल से आस्था के प्रतीक है शहडोल के घरौलानाथ हनुमान

 
SHAHDOL : 105 साल से आस्था के प्रतीक है शहडोल के घरौलानाथ हनुमान

शहडोल से रवींद्र वैद्य। हमारे देश के कोने-कोने में आस्था व मान्यताओं के प्रतीक मंदिरों की मौजूदगी बहुत सामान्य है लेकिन हर मंदिर के साथ कोई न कोई अनूठी कहानी जुड़ी रहती है। यह कहानी ही उसकी आस्था को बढ़ाता है। ऐसा ही एक मंदिर है शहडोल का घरौलानाथ हनुमान मंदिर। कहा जाता है कि जब शहडोल शहर विकसित नहीं हुआ था। तब यहां से व्यापारियों का काफिला बैलगाड़ी पर सामान के साथ निकलता था। वर्ष 1914 की बात है, आज जिस स्थान पर घरौलानाथ हनुमान मंदिर है, वहां से बैलगाड़ियों का काफिला निकल रहा था तभी यहां एक बैलगाड़ी फंस गई। व्यापारियों ने उतरकर देखा तो हनुमानजी की मूर्ति जमीन में गड़ी मिली। काफिले के साथ चल रहे लोगों ने हनुमानजी का स्मरण कर अपनी बैलगाड़ी निकलवाने में मदद मांगी। थोड़ी देर बाद कुछ बंदरों का समूह यहां आया और बैलगाड़ी को धक्का देकर निकलवाया। इसके बाद व्यापारियों ने इस स्थान पर हनुमानजी की मूर्ति पर तिलक लगाकर पूजा पाठ किया। इसके बाद जब भी कोई काफिला गुजरता तो उसके साथ चल रहे लोग इस स्थान पर रुककर पूजा जरूर करते थे।

इस तरह धीरे-धीरे यहां मंदिर बना लिया गया। पुरानी बस्ती के लोग भी यहां आकर पूजा-अर्चना करने लगे। यहां की हनुमान प्रतिमा स्वयंभू है। यहां पूजा करने से लोगों की मन्नात पूरी होने लगी और धीरे-धीरे इस मंदिर की मान्यता बढ़ती गई।
जनसहयोग से हुए काम : मंदिर के निर्माण व विकास के लिए आज तक चंदा नहीं मांगा गया। हनुमानजी की मूर्ति आज भी उसी स्थिति में है जैसी 150 साल पहले मिली थी। जनसहयोग व दान की राशि से ही काम हुए हैं।
गड़रियों व यादवों ने देखा था सबसे पहले
यहां के पुजारी पं.नीलू महाराज ने बताया कि यहां सबसे पहले गड़रियों व यादवों ने हनुमानजी की प्रतिमा को देखा था। यहां की मान्यता व्यापारियों वाली घटना से बढ़ी है। जब घर-घर में इनकी ख्याति बढ़ने लगी तो इस मंदिर का नाम घरौलानाथ हो गया। प्रथम पुजारी के रूप में मुन्नू महाराज ने वर्ष 1930 में यहां पूजा-पाठ शुरू की। मंदिर के नाम से मोहल्ले का नाम भी घरौला हो गया। यह स्थान पहले बहुत ऊंचाई पर था इसलिए इसे पटपरनाथ भी कहा जाता था।
मुझे शहडोल में आए हुए 47 साल हो गए हैं और यह मंदिर मैं तभी से देख रहा हूं। इतिहासकार बताते हैं कि यहां की प्रतिमा प्राकृतिक है और यहां की गाथा 100 साल से भी पुरानी है। 
-  प्रो. शिवकुमार दुबे, पं.एसएन शुक्ल विश्वविद्यालय, शहडोल

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