BREAKING : ग्वालियर अंचल में कांग्रेस की गुटबाजी खत्म, बनेंगे नए समीकरण

 
ग्वालियर। कांग्रेस को ठुकराकर प्रदेश में तख्ता पलट करने और अब भाजपा में जमीन मजबूत करने निकले ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अंचल की राजनीति में कई नए समीकरण खड़े कर दिए हैं। उनके निर्णय से अंचल में चार दशक बाद कांग्रेस की गुटबाजी को फिलहाल विराम लग गया है।
वैसे तो कई जन्मजात कांग्रेसी भी सिंधिया के साथ चले गए हैं, लेकिन जो बचे हैं वे अब उन्हें सबक सिखाने की शपथ ले रहे हैं। इसके लिए मोर्चा संभाला है उनके धुर विरोधी दिग्विजय सिंह ने। कमल नाथ पीछे हट गए हैं। कारण यह कि अंचल में कमल नाथ के समर्थक ही नहीं है। सिंधिया के विरोध में भाजपा के सदस्यता अभियान के पहले दिन कांग्रेस ने जो शक्ति प्रदर्शन किया, उसकी पटकथा दिग्विजय सिंह ने तैयार की थी।
पहले माधवराव-अर्जुन, फिर ज्योतिरादित्य-दिग्विजय में जंग
चार दशक पहले 1980 में प्रदेश में ज्योतिरादित्य के पिता माधवराव सिंधिया और अर्जुन सिंह का बोलबाला था। दोनों कद्दावर थे और केन्द्र तक धमक थी। अर्जुन सिंह 1980- से 85 तक मुख्यमंत्री रहे तो उन्होंने अंचल में अपने समर्थकों की भी फौज खड़ी कर दी थी।
उनकी फौज माधवराव को पीछे छोड़ने का प्रयास करती रही। हालांकि ऐसा नहीं हो सका,लेकिन दोनों गुटों की ताकत बनी रही। 2001 में विमान दुर्घटना में माधवराव की मृत्यु के बाद हालात तेजी से बदले लेकिन उनके पुत्र ज्योतिरादित्य ने मोर्चा संभाल लिया। पिता द्वारा तैयार राजनीतिक विरासत को पूरे दमखम के साथ आगे बढ़ाया। उधर, अर्जुन सिंह के निधन के बाद दिग्विजय सिंह ने प्रदेश की कमान संभाली थी इसलिए अंचल में गुटबाजी का सिलसिला थमने के बजाय बरकरार रहा।
ज्योतिरादित्य का ग्राफ चढ़ा और दिग्विजय का गिरा
मिस्टर बंटाढार के रूप में पहचान बनते ही दिग्विजय सिंह जनता ने उन्हें 2003 में सत्ता से बाहर कर दिया। जनता में दिग्विजय सिंह की साख गिरी तो ज्योतिरादित्य की ताकत बढ़ती गई। उनके समर्थकों, खासतौर पर ग्वालियर अंचल में उनके समर्थकों की फौज तैयार होने लगी। माना जाने लगा कि 2013 का चुनाव ज्योतिरादित्य के नेतृत्व में लड़ा जाएगा। लेकिन गांधी परिवार के करीबी दिग्विजय सिंह(राजा), ज्योतिरादित्य(महाराजा) की राह में रोड़ा बन गए। 2018 तक दिग्विजय की साख नहीं सुधरी तो दूसरी ओर सिंधिया का प्रभाव मालवा तक हो गया।
दिग्विजय सिंह का गुट काफी कमजोर हो गया और उनके समर्थकों ने कांग्रेस के कार्यक्रमों में शामिल होने से ही दूरिया बनाना शुरू कर दिया था। 2018 में भाजपा को 15 साल बाद सत्ता से बाहर करने में सिंधिया की ताकत को इसलिए स्वीकार करना पड़ा क्योंकि अंचल की 34 में से 26 सीटों पर कांग्रेस ने परचम लहराया था। इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ जब 26 सीटें कांग्रेस के खाते में गई। लेकिन सत्ता में आते ही दिग्विजय सिंह सत्ता का केन्द्र बिन्दु बन गए तो उनके समर्थक फिर सक्रिय हो गए।
सिंधिया का वजूद कम करना ही चुनौती
वर्तमान हालातों में अंचल में अब एक ऐसा वर्ग उभर रहा है जिसका उद्देश्य केवल और केवल सिंधिया की ताकत को कम करना है। उनके लिए विधानसभा चुनाव ही एक मात्र अवसर है। इसलिए दिग्विजय सिंह की पटकथा पर कांग्रेस ने विरोध प्रदर्शन कर उनसे लड़ने की रिहर्सल की थी। इसमें दिग्विजय गुट के अलावा वे लोग भी शामिल हो गए जो किन्हीं कारणों से सिंधिया से दूर होना चाहते थे। जातिगत राजनीति की बात करें तो वे नेता भी अपने समाज के वर्चस्व के साथ सिंधिया के विरोध में खड़े हो गए हैं, जिन्होंने सिंधिया के लिए तन-मन और धन लगाया लेकिन टिकट व प्रमुख पदों पर आसीन नहीं हो सके। इस लिहाज से देखें तो 1980 के बाद आज अंचल में निर्गुट कांग्रेस खड़ी नजर आ रही है।