कमाऊ औरतों को लेकर मर्दों की सोच बोतल में बंद सोडे की तरह है, पढ़िए यह दिलचस्प स्टोरी

 

अमेरिका में तब पतझड़ चल रहा था, जब गूगल में काम करती हसीन खवातीनों (महिलाओं) ने कीबोर्ड पर टकटकाती लंबी उंगलियां रोकीं, और कंपनी से बगावत कर दी। उनका कहना था कि बराबर काम के बावजूद उन्हें पुरुष साथियों से कम तनख्वाह मिलती है। वे तीन औरतें थीं, जबकि जिनके खिलाफ उन्होंने बयान दिया, वो दुनिया की चुनिंदा सबसे ताकतवर कंपनियों में से एक।

कंपनी इनकार करती रही, लेकिन औरतें थीं कि मदमस्त हाथी की तरह तोड़फोड़ ही करती रहीं। आखिर पांच सालों बाद गूगल ने माना कि कहीं 'थोड़ी-बहुत' ऊंच-नीच तो हुई है। बदले में वो अब मुकदमा करने वाली महिलाओं समेत 15 हजार औरतों को 118 मिलियन डॉलर से ज्यादा का मुआवजा देगा। वो खुश है। इतने सस्ते में उसे अगले कई सालों तक दुनिया की करोड़ों कामकाजी महिलाओं से नाइंसाफी की छूट मिल गई ।

यहां ध्यान देने की बात ये है कि उसने मुआवजा दिया, ये वादा नहीं किया कि अब वो बराबर काम की सैलरी भी बराबर देगा।

गूगल को ये चालाकी ‘संस्कारों’ में मिली। 16वीं सदी बीत रही थी, जब स्त्रियां काम के लिए घर से बाहर निकलने लगीं। वे फुटकर काम करतीं। जैसे रोज सुबह ताजी ब्रेड तैयार करना, मौसमी फल चुनना, घर की सफाई, या फिर संपन्न गृहणी के कपड़े और बाल संवारना। बहुत हुआ तो उसके बच्चों को दूध पिलाना और पियानो सिखाना। ये औरतें महीने-दर-महीने, सालोंसाल काम करती रहीं, लेकिन छुटपुट जरूरतों के लिए भी पति का मुंह ताकतीं।

वजह ये थी कि हर महीने के शुरू या आखिर में मिलने वाली पगार उनके शौहर को मिला करती। ये इंग्लिश कानून था, जिसकी नकल झटपट गुलाम देशों ने भी कर डाली। तो इस तरह से दुनियाभर में लाखों ऐसी औरतें हो गईं, जो बिना पैसों के काम करतीं।

असल में वे तब पति की प्रॉपर्टी हुआ करती थीं। ठीक वैसे ही जैसे जमीन का कोई टुकड़ा, या घोड़े-बकरियां। इन सबका एक ही काम था, मर्द को और अमीर, और खुशहाल बनाना। बीवियां भी इसी श्रेणी में आतीं। तो जैसे भेड़-बकरी अपनी खुद की प्रॉपर्टी नहीं बना सकते, वैसे ही स्त्रियों के पास भी प्रॉपर्टी का कोई सवाल ही नहीं आता था, फिर चाहे वो घर बैठें, या उम्रभर काम करें।

स्त्रियां वैसे भी ‘सेकेंडरी अर्नर’ होती हैं। यानी वो, जो अपने पार्टनर की तुलना में चुटुर-पुटुर पैसे कमाएं। ये हम नहीं, सर्च इंजन कहते हैं। गूगल पर ये शब्द डालते ही धपाधप कई आर्टिकल खुलते चले जाते हैं, जहां नर्म-गर्म लहजे में औरतों की बात हो रही है। वे टाइमपास के लिए काम करती हैं। अपने पैसों से इत्र-फुलेल खरीदती हैं, कपड़े चुनती हैं और मौके-बेमौके यार-परिवार के लिए तोहफे ला देती हैं। इतने में ही उनकी तनख्वाह गर्म तवे पर दो-चार बूंदों की तरह गिरकर छन्न से गायब हो जाती है।

दो-चार साल पहले की बात है, जब मेरे एक पुरुष कलीग ने बातों-बातों में कहा- ‘तुम लड़कियों को नौकरी की क्या जरूरत! चाहे जब काम छोड़कर दुनिया घूम सकती हो’! वो मॉर्डन था। पढ़ा-लिखा। बाहर घूमकर लौटा। प्यार और लिव-इन के बाद शादी की थी। मौज में आने पर ओपन रिलेशनशिप जैसी चर्चाएं भी करता, लेकिन कमाऊ औरतों को लेकर उसकी सोच बोतल में बंद सोडा जैसी थी, ढक्कन खोलते ही उफनकर गिरती हुई।

साल 2018 में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की जेंडर गैप रिपोर्ट आई थी। कुल 149 देशों में हुई इस स्टडी में भारत 108वें स्थान पर रहा। यानी हमारे यहां बिल्कुल एक जैसे काम पर भी मर्द को ज्यादा, औरत को कम पैसे मिलते हैं। चाहे कितनी ही पढ़ी-लिखी हों, चाहे कितनी ही मेहनती हों, अगर आप जेंडर वाले कॉलम में फीमेल भरती हैं तो आप कमतर हो जाएंगी। औरत होना आपकी पहली अयोग्यता है।

किस्सा यहीं खत्म नहीं होता। हाइव की एक स्टडी बताती है कि महिलाएं दफ्तर में अपने पुरुष साथियों से 10 प्रतिशत ज्यादा मेहनत करती हैं। इसलिए नहीं कि उन्हें काम नहीं आता, या वे देर से सीखती हैं। बल्कि इसलिए क्योंकि तय कामों के अलावा नॉन-प्रमोटेबल टास्क भी उन्हें थमा दिया जाता है। वो काम, जिसे वो तमगे की तरह रेज्यूमे में नहीं लिख सकतीं, न ही जिसके बदले उन्हें प्रमोशन मिलता है।

मिसाल के तौर पर, नए आए साथी को कॉफी मशीन तक ले जाना, दफ्तर के कायदे समझाना, बीमार साथी की मदद करना, या स्ट्रेस में आई टीम को तसल्ली देना। दीपावली-होली पर रंगोली बनाना और मिठाइयों की लिस्ट बनाना भी उनके जिम्मे आता है।

इन सब ‘गैरजरूरी’ कामों के अलावा दफ्तरिया टास्क भी निबटाती हैं। रिसर्च भी करती हैं और प्रेजेंटेशन भी बनाती हैं। बस, बोर्ड रूम में जाते ही तस्वीर उलट जाती है। वे कुर्सी पर चुपचाप बैठी उसी प्रेजेंटेशन को किसी ऐसे मर्द को प्रेजेंट करता पाती हैं, जो पूरे वक्त ‘मियां लापता’ बना रहा।

बराबरी का हक देने वाले देशों में अव्वल खड़े नीदरलैंड ने हाल में एक स्टडी की। ‘पेरेंटल लीव रिफॉर्म एंड लॉन्ग-रन अर्निंग्स….’ नाम से हुई स्टडी में ये समझने की कोशिश थी कि तनख्वाह के मामले में औरतें पिछड़ क्यों जाती हैं। इसके नतीजे चौंकाते हैं। इसके मुताबिक पेड लीव के बावजूद बच्चे के जन्म पर पिता छुट्टी लेने से डरते हैं कि लौटने पर दफ्तर में उनका रसूख न घट जाए।

ऑस्ट्रेलिया में हालात और खराब हैं, जहां प्राइमरी केयर-गिवर के सेक्शन में मां का ही नाम होता है, यानी पुरुष रोते हुए बच्चे और कमजोर मां को छोड़कर आराम से दफ्तर जा सकते हैं। ये हाल कमोबेश हर पेशे, और जमीन के हर हिस्से में है।

वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम के मुताबिक साल 2277 वो वक्त है, जब औरत-मर्द समान काम पर समान वेतन पाएंगे। ढाई सौ साल से भी ज्यादा। वो भी तब, जब दुनिया में कोई दूसरा कोरोना न आए, या कोई जंग न छिड़े।