ज्योर्तिमठ और शारदा पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का 98 वर्ष की आयु में निधन, 9 साल की उम्र में घर छोड़कर धर्म यात्राएं शुरू करी थी 

स्वामी स्वरूपानंदजी आजादी की लड़ाई में जेल भी गए थे। उन्होंने राम मंदिर निर्माण के लिए लंबी कानूनी लड़ाई भी लड़ी थी।
 
राम मंदिर के लिए लड़ी लंबी लड़ाई

ज्योर्तिमठ बद्रीनाथ और शारदा पीठ द्वारका के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती (Shankaracharya Swami Swaroopanananda Saraswati)  का 98 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्होंने नरसिंहपुर के झोतेश्वर स्थित परमहंसी गंगा आश्रम (Paramhansi Ganga Ashram) में दोपहर साढ़े 3 बजे अंतिम सांस ली। वे लंबे समय से अस्वस्थ चल रहे थे। स्वामी स्वरूपानंदजी (Swami Swaroopanandji) आजादी की लड़ाई में जेल भी गए थे। उन्होंने राम मंदिर निर्माण के लिए लंबी कानूनी लड़ाई भी लड़ी थी।

सोमवार शाम 5 बजे आश्रम में दी जाएगी समाधि

शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी (Shankaracharya Swami Swaroopanananda Saraswati) का बेंगलुरु में इलाज चल रहा था। कुछ ही दिन पहले वह आश्रम लौटे थे। उनके निधन पर शोक की लहर है। उनके शिष्य ब्रह्म विद्यानंद (Disciple Brahma Vidyanand) ने बताया कि सोमवार शाम 5 बजे उन्हें आश्रम में ही समाधि दी जाएगी। उन्होंने बताया कि स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी (Swami Swaroopanand Saraswati) ने 98 की उम्र में अंतिम सांस ली।

गंगा कुंड स्थल ले जाई गई पार्थिव देह

जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी महाराज (Jagatguru Shankaracharya Swami Swaroopanananda Ji Maharaj) को मणिदीप आश्रम (Manideep Ashram) से गंगा कुंड स्थल तक पालकी से ले जाया गया। इस दौरान बड़ी संख्या में भक्त मौजूद रहे। भक्त जय गुरुदेव के जयघोष लगा रहे थे। गंगा कुंड पर शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी के पार्थिव शरीर को अंतिम दर्शन के लिए रखा गया है। सोमवार शाम करीब 4 बजे उन्हें समाधि दी जाएगी। भारी संख्या में पुलिस बल भी यहां तैनात किया गया है। शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी महाराज के अंतिम दर्शन के लिए कई वीआईपी लोगों के आने का सिलसिला भी शुरू हो गया है।

सिवनी जिले के दिघोरी गांव में हुआ था जन्म

स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का जन्म 2 सितंबर 1924 को मध्यप्रदेश के सिवनी (siwani) जिले में जबलपुर के पास दिघोरी गांव में हुआ था। उनके पिता धनपति उपाध्याय (Dhanapati Upadhyay) और मां का नाम गिरिजा देवी (Girija Devi) था। माता-पिता ने इनका नाम पोथीराम उपाध्याय (Pothiram Upadhyay) रखा। 9 साल की उम्र में उन्होंने घर छोड़ कर धर्म यात्राएं शुरू की। इस दौरान वह काशी पहुंचे और यहां उन्होंने ब्रह्मलीन श्री स्वामी करपात्री महाराज से वेद-वेदांग, शास्त्रों की शिक्षा ली। उस दौरान भारत को अंग्रेजों से मुक्त करवाने की लड़ाई चल रही थी।

1981 में शंकराचार्य की उपाधि मिली, 2 बार जेल गए

1942 में जब अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा लगा तो वह भी स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। 19 साल की उम्र में वह 'क्रांतिकारी साधु' के रूप में प्रसिद्ध हुए। इसी दौरान उन्होंने वाराणसी की जेल में 9 और मध्यप्रदेश की जेल में 6 महीने की सजा भी काटी। वे करपात्री महाराज की राजनीतिक दल राम राज्य परिषद के अध्यक्ष भी थे। 1950 में वह दंडी संन्यासी बनाये गए और 1981 में शंकराचार्य की उपाधि मिली। 1950 में शारदा पीठ शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती से दण्ड-सन्यास की दीक्षा ली और स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती नाम से जाने जाने लगे।

राम मंदिर के नाम पर दफ्तर बनाने का आरोप लगाया था

शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने राम जन्मभूमि न्यास के नाम पर विहिप और भाजपा को घेरा था। उन्होंने कहा था- अयोध्या में मंदिर के नाम पर भाजपा-विहिप अपना ऑफिस बनाना चाहते हैं, जो हमें मंजूर नहीं है। हिंदुओं में शंकराचार्य ही सर्वोच्च होता है। हिंदुओं के सुप्रीम कोर्ट हम ही हैं। मंदिर का एक धार्मिक रूप होना चाहिए, लेकिन यह लोग इसे राजनीतिक रूप देना चाहते हैं जो कि हम लोगों को मान्य नहीं है।

शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के वे बयान जो विवादित रहे

23 जनवरी 2014: जबलपुर में एक पत्रकार ने उनसे यह पूछा कि ‘नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल में से बेहतर प्रधानमंत्री कौन’ तो वह भड़क गए और पत्रकार को थप्पड़ जड़ दिया।

23 जून 2014: शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने कहा, ‘साई पूजा हिन्दू धर्म के खिलाफ है। साई भक्तों को भगवान राम की पूजा, गंगा में स्नान और हर-हर महादेव का जाप नहीं करना चाहिए।’

25 जून 2014: शंकराचार्य ने कहा था कि साई भक्तों को गंगा में स्नान नहीं करना चाहिए। और अब जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने महिलाओं को महाराष्ट्र के शनि शिंगणापुर मंदिर में प्रवेश की अनुमति दे दी है। इन्होंने कहा था कि शनि एक पाप ग्रह हैं। उनकी शांति के लिए प्रयास किए जाते हैं। महिलाओं को मंदिर में प्रवेश की अनुमति पर इतराना नहीं चाहिए।

क्या है शांकर मठ परम्परा

जगदगुरु आद्य शंकराचार्य ने सनातन-धर्म के प्रचार-प्रसार, गुरु-शिष्य परम्परा के निर्वहन, शिक्षा, उपदेश और संन्यासियों के प्रशिक्षण और दीक्षा, आदि के लिए देश के अलग अलग स्थानों पर 4 मठों या पीठों की स्थापना की। वहां के मठाध्यक्ष (मठाधीश, महंत, पीठाधीश, पीठाध्यक्ष) को शंकराचार्य की उपाधि दी। इस प्रकार ये मठाधीश, आद्य शंकराचार्य के प्रतिनिधि माने जाते हैं। ये प्रतीक-चिह्न, दण्ड, छत्र, चंवर और सिंहासन धारण करते हैं। ये अपने जीवनकाल में ही अपने सबसे योग्य शिष्य को उत्तराधिकारी घोषित कर देते हैं। यह उल्लेखनीय है कि आद्य शंकराचार्य से पूर्व ऐसी मठ-परम्परा का संकेत नहीं मिलता। आद्य शंकराचार्य ने ही इस महान परंपरा की नींव रखी थी।

ज्योतिर्मठ और द्वारका, शारदा मठ के शंकराचार्य थे स्वामी स्वरूपानंद जी

ज्योतिर्मठ - यह मठ उत्तराखंड के बद्रीकाश्रम में है। इस मठ की स्थापना सर्वप्रथम, 492 ई.पू. में हुई। यहां दीक्षा लेने वाले संन्यासियों के नाम के बाद ‘गिरि’, ‘पर्वत’ और ‘सागर’ विशेषण लगाया जाता है। जिससे उन्हें उस संप्रदाय का संन्यासी माना जाता है। इस पीठ का महावाक्य ‘अयमात्म ब्रह्म’ है। यहां अथर्ववेद-परम्परा का पालन किया जाता है। आद्य शंकराचार्य ने तोटकाचार्य को इस पीठ का प्रथम शंकराचार्य नियुक्त किया था। ब्रह्मलीन पुज्य स्वामी कृष्णबोधाश्रम महाराज जी के बाद स्वामी स्वरूपानंद यहां के प्रमुख थे। हालांकि इस पर अभी विवाद है। मामला कोर्ट में विचाराधीन है।

द्वारका, शारदा मठ - यह मठ गुजरात के द्वारका में है। इस मठ की स्थापना 489 ई.पू. में हुई। इस मठ में दीक्षा लेने वाले संन्यासियों के नाम के बाद ‘तीर्थ’ और ‘आश्रम’ विशेषण लगाया जाता है। यहां का वेद सामवेद और महावाक्य ‘तत्त्वमसि’ है। इस मठ के प्रथम शंकराचार्य हस्तामालकाचार्य थे। हस्तामलक आदि शंकराचार्य के प्रमुख चार शिष्यों में से एक थे। वर्तमान में स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती इसके 79वें मठाधीश थे।