शिक्षा विभाग में बजट का 'गोलमाल': सरकारी स्कूलों की बदहाली का असली गुनहगार कौन?
ऋतुराज द्विवेदी,रीवा/भोपाल। (राज्य ब्यूरो) यह किसी से छिपा नहीं है कि मध्य प्रदेश के सरकारी स्कूलों की हालत अक्सर दयनीय बनी रहती है। कहीं बुनियादी ढांचे का अभाव है, तो कहीं शिक्षण सामग्री की कमी। शिक्षक भी अपनी जेब से खर्च करने को मजबूर होते हैं। इन सबके पीछे एक बड़ा कारण, जैसा कि आरोप लगाए जा रहे हैं, सरकारी बजट का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग और अधिकारियों द्वारा धन का गबन है।
कहाँ जाता है शिक्षा का बजट?
शिक्षा विभाग में हर स्तर पर - राज्य शिक्षा केंद्र (RSK), लोक शिक्षण संचालनालय (DPI) और हर जिला शिक्षा अधिकारी (DEO) कार्यालय व हर सरकारी स्कूल के लिए अलग-अलग मदों में बजट आवंटित होता है। इस बजट का उद्देश्य छात्रों को बेहतर शिक्षा, स्कूलों को आवश्यक सुविधाएं और शिक्षकों को समुचित संसाधन उपलब्ध कराना है।
मुख्य बजट आवंटन निम्नलिखित मदों में होता है:
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शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए (जैसे TLM - शिक्षण अधिगम सामग्री): शिक्षकों को नई शिक्षण विधियों और सामग्री के लिए प्रशिक्षित करने के लिए राशि दी जाती है, जिसमें अक्सर चाय, नाश्ता और आवागमन भत्ता भी शामिल होता है।
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स्कूलों के रखरखाव और मरम्मत के लिए: कक्षाओं, शौचालयों, खेल के मैदानों आदि के सुधार के लिए फंड मिलता है।
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टीचिंग-लर्निंग मटेरियल (TLM) और अन्य शैक्षणिक सामग्री के लिए: छात्रों के लिए किताबें, स्टेशनरी, प्रयोगशाला उपकरण और अन्य सीखने की सामग्री खरीदने के लिए पैसा आता है।
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छात्रों के लिए योजनाएँ (जैसे गणवेश, छात्रवृत्ति, मध्यान भोजन): इन योजनाओं के लिए भी एक बड़ा बजट निर्धारित होता है।
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भवन निर्माण और बुनियादी ढांचा विकास: नए स्कूल भवन बनाने या मौजूदा भवनों को अपग्रेड करने के लिए।
'खा जाते हैं' अधिकारी: भ्रष्टाचार का दुष्चक्र
अफसोस की बात यह है कि यह सारा पैसा, जो बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए आता है, अक्सर अधिकारियों की लालच और मिलीभगत का शिकार हो जाता है। आरोपों के अनुसार, DEO कार्यालयों से लेकर निचले स्तर तक बजट का बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है।
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फर्जी बिल और वाउचर: जिन मदों में खर्च दिखाया जाता है, अक्सर या तो वह काम होता ही नहीं, या बहुत निम्न गुणवत्ता का होता है, और बिलों में बढ़ा-चढ़ाकर राशि दिखाई जाती है।
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सामग्री खरीद में कमीशनखोरी: TLM या अन्य सामग्री खरीदने में गुणवत्ता से समझौता करके या अधिक दरों पर खरीद दिखाकर कमीशन खाया जाता है।
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प्रशिक्षण के नाम पर धांधली: जैसा कि रीवा में देखा गया, प्रशिक्षण निजी परिसरों में आयोजित किए जाते हैं ताकि उन स्कूलों को लाभ पहुंचाया जा सके, जबकि सरकारी स्थानों का उपयोग नहीं किया जाता। शिक्षकों को मिलने वाली सुविधाओं में भी कटौती की जाती है, जबकि उनके नाम पर पूरा बजट निकाला जाता है।
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मरम्मत कार्यों में अनियमितता: स्कूलों की मरम्मत और निर्माण में घटिया सामग्री का उपयोग करके या काम पूरा न करके भी पैसे का गबन किया जाता है।
परिणाम: बदहाल शिक्षा व्यवस्था
इस व्यापक भ्रष्टाचार का सीधा असर सरकारी स्कूलों की शिक्षा की गुणवत्ता पर पड़ता है। छात्रों को वह सुविधाएं नहीं मिल पातीं जिसके वे हकदार हैं, और शिक्षक हतोत्साहित महसूस करते हैं। यह स्थिति उस सरकारी संकल्प को कमजोर करती है जिसमें कहा गया है कि सरकार बच्चों को निःशुल्क पुस्तकें, गणवेश, मध्याह्न भोजन, छात्रवृत्ति, स्कूटी, लैपटॉप और मोबाइल जैसी सुविधाएँ मुहैया कराकर शासकीय स्कूलों में अधिक से अधिक छात्रों को अध्ययन कराना चाहती है।
राज्य शिक्षा केंद्र और लोक शिक्षण संचालनालय, जो शिक्षा के लिए नीतियां बनाते और धन आवंटित करते हैं, उनकी भी जवाबदेही बनती है कि वे यह सुनिश्चित करें कि बजट का सदुपयोग हो। यह आवश्यक है कि राजकोष के प्रत्येक पैसे का हिसाब हो और लापरवाह व भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ कठोरतम कार्रवाई की जाए।
क्या मध्य प्रदेश सरकार इस गंभीर मुद्दे पर ध्यान देकर शिक्षा के नाम पर हो रहे इस 'गोलमाल' को रोकेगी और सुनिश्चित करेगी कि हर रुपया छात्रों के भविष्य पर खर्च हो, न कि अधिकारियों की जेब में जाए?