'मनोरोग विभाग' 2006 में था ही नहीं, फिर सर्टिफिकेट किसने दिया? अब शिक्षिका ही नहीं, उस 'मददगार डॉक्टर' और DEO ऑफिस के बाबुओं पर भी FIR!

 
अर्चना आर्या ने सेवा में वापसी के लिए 2006 और 2017 के फर्जी फिटनेस/बीमारी सर्टिफिकेट लगाए। HC ने रीवा SP को FIR के आदेश दिए।

ऋतुराज द्विवेदी, रीवा/भोपाल। (राज्य ब्यूरो) रीवा में एक महिला शिक्षिका अर्चना आर्या का 20 साल तक नौकरी से गायब रहने के बाद सेवा में लौटने का प्रयास उन्हें भारी पड़ गया है। जबलपुर हाईकोर्ट (Jabalpur High Court) में दायर उनकी याचिका ने न सिर्फ उनकी गैरहाजिरी को वैध नहीं ठहराया, बल्कि उनके द्वारा प्रस्तुत बीमारी और फिटनेस सर्टिफिकेट (Illness and Fitness Certificate) में एक बड़ा फर्जीवाड़ा (Major Forgery) उजागर कर दिया। कोर्ट के सख्त आदेश पर रीवा पुलिस ने आज (गुरुवार) को महिला शिक्षिका के खिलाफ एफआईआर (FIR) दर्ज कर ली है।

यह मामला सरकारी नौकरियों में फर्जी मेडिकल दस्तावेजों के माध्यम से धोखाधड़ी (Fraud) करने वाले व्यक्तियों और उन्हें सहयोग देने वाले चिकित्सा अधिकारियों के लिए एक बड़ी चेतावनी है।

सेवा में वापसी की मांग और फर्जीवाड़े की स्क्रिप्ट 
अर्चना आर्या को वर्ष 2001 में शिक्षा कर्मी वर्ग-तीन के पद पर नियुक्त किया गया था। लेकिन, बीमारी का हवाला देकर वह वर्ष 2002 से 2018 तक लगातार 16 साल तक सेवा से अनुपस्थित रहीं।

  • दस्तावेजों की प्रस्तुति: 2018 में जब उन्होंने सेवा में लौटने का प्रयास किया, तो विभाग के सामने दो महत्वपूर्ण प्रमाणपत्र प्रस्तुत किए:
  • 2006 का अनफिट (बीमारी) प्रमाणपत्र: जिसमें लंबी बीमारी के कारण अनुपस्थिति की मांग की गई।
  • 2017 का फिटनेस सर्टिफिकेट: जिसमें उन्हें सेवा के लिए फिट घोषित किया गया।

विभाग का इनकार: शिक्षिका ने मांग की कि इन दस्तावेजों के आधार पर उनकी 15 साल से अधिक की गैरहाजिरी को मेडिकल अवकाश के रूप में स्वीकृत कर उन्हें वापस नौकरी पर लिया जाए। लेकिन शिक्षा विभाग ने दस्तावेजों को खारिज करते हुए उनकी मांग ठुकरा दी, जिसके बाद मामला हाईकोर्ट पहुँच गया।

हाईकोर्ट में बड़ा खुलासा: 2006 में नहीं था मनोरोग विभाग, हस्ताक्षर फर्जी! 
जबलपुर हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति विवेक जैन की एकलपीठ ने जब मामले की सुनवाई की, तो प्रमाणपत्रों पर संदेह होने पर विस्तृत जाँच के आदेश दिए।

  • हस्ताक्षर की जाँच: कोर्ट ने पाया कि 2006 के बीमारी प्रमाणपत्र और 2017 के फिटनेस प्रमाणपत्र, दोनों पर ही रीवा मेडिकल कॉलेज के मनोरोग विभाग (Psychiatry Department) के एचओडी डॉ. प्रदीप कुमार के हस्ताक्षर थे। कोर्ट ने आश्चर्य जताया कि क्या एक ही व्यक्ति 11 साल तक एचओडी बना रहा?
  • डीन का बयान: कोर्ट ने रीवा मेडिकल कॉलेज के डीन डॉ. सुनील अग्रवाल से जवाब मांगा। डीन ने कोर्ट में जो जानकारी दी, वह फर्जी मेडिकल सर्टिफिकेट कैसे पकड़ा गया, इसका सबसे बड़ा सबूत बनी:

"रीवा मेडिकल कॉलेज में मनोरोग विभाग का गठन ही वर्ष 2009 में हुआ था। इसका मतलब है कि 2006 में यह विभाग अस्तित्व में ही नहीं था।"
यह खुलासा साबित करता है कि 2006 का बीमारी प्रमाणपत्र पूरी तरह से फर्जी था, और उस पर किए गए हस्ताक्षर भी झूठे थे।

कोर्ट का सख्त रुख: शिक्षिका की याचिका खारिज और SP को FIR के आदेश 
फर्जीवाड़े का यह स्पष्ट मामला सामने आने के बाद कोर्ट ने सख्त रुख अपनाया।

  • याचिका खारिज: कोर्ट ने माना कि शिक्षिका की 15 साल की लंबी गैरहाजिरी नौकरी से हटाने के लिए पर्याप्त कारण है, और उन्होंने धोखाधड़ी का सहारा लिया। इस आधार पर कोर्ट ने अर्चना आर्या की याचिका खारिज कर दी।
  • FIR का आदेश: कोर्ट ने रीवा एसपी को स्पष्ट निर्देश दिया कि फर्जी हस्ताक्षर करने वाले और फर्जी दस्तावेज प्रस्तुत करने वाले के खिलाफ आपराधिक प्रकरण (Criminal Case) दर्ज किया जाए और 15 दिन में रिपोर्ट पेश की जाए।

एडिशनल एसपी आरती सिंह ने पुष्टि की है कि कोर्ट के आदेश के बाद पुलिस ने जाँच शुरू कर दी है।

पुलिस एक्शन और मददगार डॉक्टर पर शिकंजा 
रीवा पुलिस ने कोर्ट के आदेश के अनुपालन में आज एफआईआर दर्ज कर ली है। अब पुलिस का ध्यान सिर्फ शिक्षिका पर नहीं, बल्कि उस पूरे नेटवर्क पर है जिसने यह फर्जीवाड़ा करवाया।

  • डॉक्टर पर कार्रवाई: एसपी शैलेंद्र सिंह ने स्पष्ट किया है कि अब उस डॉक्टर के खिलाफ भी कार्रवाई की जाएगी, जिसने इस फर्जीवाड़े में महिला की मदद की। पुलिस अभी साक्ष्य जुटा रही है।

फर्जी हस्ताक्षर करने पर क्या सजा है, यह अब उस 'मददगार' डॉक्टर को पता चलेगा, जिसने अपने पद का दुरुपयोग कर अवैध तरीके से हस्ताक्षर किए।

निष्कर्ष: नौकरी से 15 साल की गैरहाजिरी और धोखाधड़ी 
अर्चना आर्या का मामला उन सभी सरकारी कर्मचारियों के लिए एक मिसाल है जो नौकरी से 20 साल गायब रहने पर क्या होता है (What happens when absent from government job for 20 years), यह जानने के बाद भी फर्जीवाड़ा का सहारा लेते हैं। हाईकोर्ट की सतर्कता से यह स्पष्ट हुआ है कि सरकारी नौकरी वापसी के लिए मेडिकल सर्टिफिकेट की आड़ में धोखाधड़ी अब बर्दाश्त नहीं की जाएगी।