जानिए पितरों की पूजा करने से क्या होते है लाभ ... पढ़िए ! | PITRU PAKSHA SHRADH

 
सनातन धर्म की मान्यताओं के अनुसार पितरों (पूर्वजों) के लिए किए गए कार्यों से उनकी आत्मा को शांति मिलाती है। कहते हैं जो श्राद्ध करता है उसे पितृ ऋण से मुक्ति मिलती है। दरअसल श्राद्ध शब्द, श्रद्धा से बना है। इसलिए श्रद्धा, श्राद्ध का प्रथम अनिवार्य तत्व है या कहें तो पितरों के प्रति श्रद्धा प्रकट करना ही श्राद्ध है। शास्त्रों में कहा गया है कि पिता एवं माता के कुल में यदि कोई पुरुष न हो तो स्त्री को भी श्राद्ध कर्म करने का अधिकार है। इसके साथ ही भी विवाहित पुत्री को श्राद्ध कर्म करने की वरीयता दी गई है यानी पत्नी, पुत्री या उसी कुल की किसी भी स्त्री को अपने पितरों की श्राद्ध करने का अधिकार प्राप्त है।
गरुड़ पुराण के अनुसार समयानुसार श्राद्ध करने से कुल में कोई दुखी नहीं रहता है। पितरों की पूजा करके मनुष्य आयु, पुत्र, यश और कीर्ति प्राप्त करता है। देवकार्य में पितृ को बहुत अधिक महत्व दिया गया है। अतः देवताओं से पहले पितरों को प्रसन्न करना अनिवार्य है।
शास्त्र में श्राद्ध के अधिकारी के रूप में विभिन्न व्यवस्थाएं दी गईं हैं। इस व्यवस्था के पीछे उद्देश्य यही रहा है कि श्राद्ध कर्म विलुप्त न हो जाए। शास्त्रों में कहा गया है कि पिता का श्राद्ध पुत्र को करना चाहिए।
एक से अधिक पुत्र होने पर बड़े पुत्र को श्राद्ध करना चाहिए। पुत्र के न होने पर पौत्र, प्रपौत्र भी श्राद्ध कर्म कर सकते हैं। पौत्र, प्रपौत्र न होने पर पुत्री का पुत्र श्राद्ध कर्म कर सकता है। इसके भी न होने पर भतीजा भी श्राद्ध कर्म कर सकता है। गोद लिया पुत्र भी श्राद्ध कर्म करने का अधिकारी होता है। परिवार की सातवीं पीढ़ी का तक के सदस्य और आठवी पीढ़ी से चौदहवी पीढ़ी तक के पारिवारिक सदस्य भी श्राद्ध कर सकते हैं।
अगर इस कुल के कोई भी सदस्य न हों तो माता के कुल के 'सपिंड और शोधक' को भी श्राद्ध करने का अधिकारी माना गया है यानी माता के कुल का व्यक्ति भी श्राद्ध कर्म कर सकता है।
यदि किसी के पुत्र न हो और पत्नी भी जीवित न हो तो ऐसी स्थिति में पत्नी दिवंगत पति की आत्मा की शांति के लिए श्राद्ध कर्म कर सकती है। किसी के ना होने पर पुत्री भी श्राद्ध कर्म कर सकती है। उसी कुल की विधवा स्त्री भी श्राद्ध कर्म कर सकती है। इस विषय पर अनेकों तर्क व प्रमाण धर्म शास्त्रों में बताए गए हैं।