REWA : विंध्य के जंगल ही बाघों की पहली पसंद क्यों रहे, यहां विस्तार से जानिए

 
REWA : विंध्य के जंगल ही बाघों की पहली पसंद क्यों रहे, यहां विस्तार से जानिए

रीवा. विंध्य के जंगलों से बाघों का गहरा नाता रहा है। लंबे समय से यहां पर इनका बसेरा रहा है। इन जंगलों में वह सभी संसाधन मौजूद रहे हैं जो बाघों एवं अन्य जानवरों को आकर्षित करते रहे हैं। यहां का भौगोलिक परिदृश्य ऐसा रहा है कि बाघों को उनकी इ'छा के अनुरूप ठहरने और टहलने में कोई रुकावट नहीं होती थी। अब से करीब पांच दशक पहले तक बाघों को मारने में कोई प्रतिबंध नहीं था, इस वजह से बड़ी संख्या में इनका शिकार भी होता था, इसके बावजूद देश के अलग-अलग हिस्सों से यहां पर आते रहे हैं। इस क्षेत्र के जंगलों की संरचना ऐसी रही है कि ऊंचे पहाड़ों में घने वन रहे और उनके नीचे नदियों की श्रृंखला रही है। कुछ जगह तो जलप्रपात भी हैं, जिसकी वजह से पानी की जरूरत भी पूरी हो जाती थी। देश में घटती बाघों की संख्या के चलते साठ के दशक से ही जंगल एवं बाघों की सुरक्षा की चर्चा शुरू हो गई थी। इसे कानूनी रूप देने में करीब दस वर्ष का समय लगा और बाघों को विशेष दर्जा देते हुए इनके संरक्षण की शुरुआत की गई। लगातार घटती संख्या का असर विंध्य में भी पड़ा, यहां के जंगलों से बाघ गायब हो गए। लगातार प्रयास होते रहे, जिसकी वजह से अब नेशनल पार्क, ह्वाइट टाइगर सफारी और चिडिय़ाघर स्थापित कर फिर से बाघों की वापसी की गई है। साथ ही अन्य जानवरों की संख्या बढ़ाने के प्रयास शुरू हुए हैं।


दूसरे जंगल छोड़कर यहां भागकर आ रहे बाघ
पहले देश भर में विंध्य बाघों को लेकर चर्चा रहा है। इनदिनों एक बार फिर यह क्षेत्र बाघों की पसंद का क्षेत्र बनता जा रहा है। पन्ना के नेशनल पार्क से जो बाघ निकलते हैं वह इसी ओर आते हैं। पन्ना से निकलकर सतना के सरभंगा से लेकर रीवा के सेमरिया के जंगल तक बाघ पहुंच रहे हैं। इनदिनों इसी क्षेत्र में ही छह से आठ के बीच में बाघों ने अपना डेरा जमा रखा है। इसी तरह बांधवगढ़ के नेशनल पार्क से निकलने वाले बाघ सीधी के मझौली, सतना के रामनगर, रीवा के गोविंदगढ़ के जंगल तक पहुंच रहे हैं। बीते साल ही करीब आधा दर्जन ऐसी घटनाएं हुई जिसमें गांवों तक बाघ पहुंचे हैं। रीवा जिले के डढ़वा गांव में करीब आठ घंटे तक बाघ की मौजूदगी से पूरे जिले में हड़कंप मच गया था। कई टीमों ने इसे रेस्क्यू कर सीधी के नेशनल पार्क में छोड़ा। इससे यह साबित होता है कि अब भी यहां के जंगल बाघों के अनुकूल हैं, जिसकी वजह से दूसरे क्षेत्रों से आकर यहां पर बाघ ठहरने का प्रयास कर रहे हैं। 

बाघों को मारने पर लगाया प्रतिबंध
वाइल्ड लाइफ संरक्षण को लेकर रीवा लंबे समय से प्रमुख केन्द्र के रूप में जाना जाता रहा है। 1951 में एक ऐसा घटनाक्रम हुआ कि उसके बाद से इस क्षेत्र में बाघों का संरक्षण शुरू हो गया। महाराजा मार्तण्ड सिंह को सीधी के कुसमी के जंगल में शिकार के दौरान बाघ का शावक मिला जो सफेद रंग का था। उसे पकड़वाकर गोविंदगढ़ लाया गया और किले में रखा गया। उस दौर में बाघों का जो जितना अधिक शिकार करता था, उसी के अनुरूप उसका वैभव भी माना जाता था। रीवा, सतना एवं सीधी के जंगलों में शिकार करने के लिए दूसरे राÓयों के राजा-महाराजा भी बुलाए जाते थे। साथ ही अन्य शिकारी भी चोरी-छिपे मारते रहे हैं। कुछ वर्षों के बाद मार्तण्ड सिंह ने बाघों का शिकार नहीं करने की घोषणां की और विंध्य के आम लोगों से भी इसकी अपील की। विंध्य प्रदेश के समय इन्हें विशेष शक्तियां भी मिली हुई थी, इस वजह से बाघों का शिकार धीरे-धीरे बंद होने लगा। बाद में केन्द्र सरकार ने वन एवं वन्यप्राणी संरक्षण अधिनियम बनाया, जिसमें बाघों के साथ ही जंगल के सभी जानवरों को मारने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। 

इंसान से अधिक सम्मान बाघ को मिला
वन्य जीवों के संरक्षण को लेकर अब दुनियाभर में प्रयास शुरू किए जा रहे हैं। इसकी शुरुआत अब से 70 वर्ष पहले ही रीवा में हो गई थी। यहां गोविंदगढ़ किले में रखे गए पहले जीवित सफेद बाघ मोहन को लोगों की ओर से ऐसा सम्मान दिया गया, जो इंसान से भी अधिक था। महाराजा मार्तण्ड सिंह ने सफेद बाघ मोहन को आप कहकर संबोधित करते थे। इसका असर किले के व्यक्ति पर हुआ और यहां पर आने वाला हर कोई मोहन को उसी तरह का सम्मान देता था। कहा जाता है कि उस समय मोहन के सम्मान में उसके बाड़े के पास कोई तेज आवाज से नहीं बोलता था। इसी से वन्यजीवों के प्रति लगाव भी क्षेत्र के लोगों का बढ़ा। मोहन की जब मौत हुई थी तो उसका राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया। इतना ही नहीं कई दिनों तक रीवा के साथ ही आसपास के जिलों में भी शोक सभाएं आयोजित की गई। कुछ समय पहले दिल्ली के एक प्रोफेसर ने शोध में यह बताया था कि देश में वन्य जीवों में जितना सम्मान मोहन को मिला, दूसरे जानवरों को नहीं मिला है।

सफेद बाघों को खुले जंगल में छोडऩे का प्रयोग 
सफेद बाघों को लेकर देश के साथ ही दुनिया के कई हिस्सों में शोध हुए हैं। दावा है कि वर्तमान में जहां पर भी सफेद बाघ मौजूद हैं, वह रीवा से भेजे गए पहले सफेद बाघ मोहन के वंशज हैं। लंबे अंतराल के बाद सतना जिले के मुकुंदपुर जंगल में एक प्रयोग किया गया और दुनिया की पहली ह्वाइट टाइगर सफारी बनाई गई। यहां पर पहले एक सफेद बाघिन को छोड़ा गया, इसके बाद एक बाघ भी छोड़ा गया। इनदिनों सफेद बाघ का जोड़ा सफारी के खुले जंगल में विचरण कर रहा है। अब तक जहां पर भी सफेद बाघ रहे हैं, उन्हें चिडिय़ाघरों में ही रखा जाता रहा है। लेकिन इनके वंश को बढ़ाने की लगातार उठ रही मांगों के बीच खुले जंगल में छोडऩे की योजना भी सरकार की ओर से बनाई जा रही है। पत्रिका डाट काम को मिली जानकारी के अनुसार मध्यप्रदेश की सरकार ने वर्ष 2012 में ही एक प्रस्ताव नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथारिटी को प्रस्ताव भेजा था। उस दौरान भारतीय वन्यजीव संस्थान ने अनुमति नहीं दी थी। कुछ समय पहले ही संस्थान की ओर से नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथारिटी को कहा गया है कि सफेद बाघों को जंगल में बसाया जा सकता है। अब तक यह कहा जाता रहा है कि चिडिय़ाघरों में रहने की वजह से इन बाघों को खुले जंगल में नहीं रखा जा सकता, इनके लिए खुला जंगल उपयुक्त नहीं होगा। लेकिन मुकुंदपुर के ह्वाइट टाइगर सफारी में लगातार करीब चार वर्षों से रह रहे बाघों की रिपोर्ट के साथ ही अन्य कई स्थानों पर अध्ययन के बाद माना गया है कि खुले जंगल में सफेद बाघों को रखा जा सकता है। प्रदेश सरकार ने भी विंध्य क्षेत्र में ही यह प्रयोग करने की तैयारी की है। जिसमें सीधी जिले के संजयगांधी नेशनल पार्क को चिन्हित किया जा रहा है। यहां पर अब रायल बंगाल टाइगरों के बीच ही सफेद बाघ को भी जंगल में छोड़ा जाएगा। इसमें सीधे चिडिय़ाघर के बाघ नहीं छोड़े जाएंगे बल्कि सफारी में कुछ दिन पहले के बाद ही जंगल में छोड़ा जाना है।

वन्यप्राणियों के प्रति लगाव बढ़ाने का माध्यम बना चिडिय़ाघर
विंध्य क्षेत्र के जंगलों में बाघों के साथ ही हिरणों की प्रजाति के बड़ी संख्या में जानवरों का ठिकाना रहा है। यहां लोगों में जानवरों के प्रति जानने की जिज्ञासा भी रही है। पहले बांधवगढ़ और पन्ना में नेशनल पार्क बनाया गया, इसके बाद सीधी जिले में सबसे बड़े भौगोलिक क्षेत्र का संजयगांधी नेशनल पार्क स्थापित किया गया। बाद में छत्तीसगढ़ राÓय के गठन के चलते बड़ा हिस्सा सरगुजा और कोरिया जिलों में चला गया। सीधी जिले में ही काले मृगों का संरक्षण करने के लिए बगदरा अभयारण्य भी बनाया गया है। इतना ही नहीं कि विंध्य केवल बाघों और हिरणों तक सीमित रहा हो, सोन नदी में मगरों के लिए भी क्षेत्र आरक्षित किया गया है। कुछ समय पहले ही सतना जिले के मुकुंदपुर में चिडिय़ाघर और ह्वाइट टाइगर सफारी की शुरुआत हुई है। इसकी वजह से वन्यजीवों के प्रति क्षेत्र के लोगों को जानकारी भी हो रही है। दूर-दूर से लोग चिडिय़ाघर के जानवरों को देखने के लिए आते हैं। बाड़ों के बाहर से ही जानवरों की तस्वीरें लेकर लोग इनके बारे में अपनी प्रतिक्रियाएं सोशल मीडिया पर व्यक्त कर रहे हैं। वन्यजीवों के प्रति जानकारी लोगों तक पहुंचाने में यह कारगर साबित हो रहा है। वर्तमान में यहां पर सफेद बाघ चार, सिंह तीन, रायल बंगाल टाइगर तीन, तेंदुआ तीन, भालू दो, करीब आधा सैकड़ा की संख्या में चीतल, बाइल्डबोर, ब्लैक बक, सांभर, नील गाय, चौसिंघा सहित अन्य जानवर हैं। 

वन्यजीव विशेषज्ञ की नजर में

वन्यजीव ही शान हैं, इनके बिना अस्तित्वहीन हो जाएंगे जंगल
मनुष्य का अस्तित्व वन्यजीवों के अस्तित्व से जुड़ा है, जंगलों में रह रहे सभी वन्यजीवों का इकालाजिकल बैलेेंस स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यदि किसी जंगल से बाघों या अन्य मांसाहारी जीवों को अलग कर दिया जाए तो कालांतर में वह जंगल अपने आप नष्ट हो जाएगा। मांसाहारी जंतुओं के न रहने से शाकाहारी जंतुओं की संख्या में वृद्धि होने के कारण शाकाहारी पौधे धीरे-धीरे खत्म हो जाएंगे। ठीक इसी तरह यदि किसी जंगल से सभी पक्षियों को हटा दिया जाए तो भी जंगल अपने आप समय के साथ नष्ट हो जाएंगे। क्योंकि जंगलों में पौधों में फूलों के परागण करने एवं बीज निर्माण तथा फलों को खाकर बीजों के वितरण में पक्षी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जिस कारण पौधों की जैव विविधता बनी रहती है। पौधों एवं वन्य जीवों की जैव विविधता परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर रहती है। जंगलों में पाए जाने वाले बहुत से कीटों की गांव के खेतों में उगने वाले पौधों के परागण एवं बीज निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। इस प्रकार देश के जंगल अपने वन्यजीवों द्वारा समाज को सेवाएं दे रहे हैं। इन कीटों के न रहने से संबंधित फसलों की पैदावार अपने आप खत्म हो जाएगी। मधुमक्खियों द्वारा शहद निर्माण कर समाज को प्रदान करना एक-दूसरा इको सिस्टम सर्विसेस का उदाहरण है। विंध्य क्षेत्र के जंगलों में से रीवा-सतना के चित्रकूट, मझगवां, ककरेड़ी, गोविंदगढ़ एवं अंतरैला क्षेत्र के जंगलों का अपना अलग महत्व है। देश के मैदानी क्षेत्रों में पाए जाने वाले जंगल या तो साल प्रभावी जंगल होते हैं या सागौन प्रभावी, लेकिन विंध्य के उपरोक्त क्षेत्रों में पाए जाने वाले जंगल न तो साल प्रभावी हैं और न ही सागौन प्रभावी। विध्ंय क्षेत्र की खूबसूरत भौगोलिक संरचना के कारण ही यहां पर बांधवगढ़, पन्ना एवं संजयगांधी नेशनल पार्क के साथ कई अभयारण्य तथा अमरकंटक का अचानकमार बायोस्फियर रिजर्व स्थापित है। देश का शायद ही ऐसा कोई भूखंड होगा, जहां इस प्रकार वन्यजीवों से धनी वास स्थान होगा। विंध्य के तीनों नेशनल पार्क, अभयारण्य एवं बायोस्फियर रिजर्व आपस में कारीडोर से जुड़े होने के कारण वन्यजीवों की प्रचुरता को बढ़ाते हैं। अत: इन कारीडोर्स को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी विंध्य के सभी लोगों की होती है। कभी-कभी पन्ना नेशनल पार्क के बाघों का चित्रकूट, ककरेड़ी एवं बरदहा घाटी के जंगलों में विचरण करना इस बात की पुष्टि करता है कि यह क्षेत्र एक प्रमुख कारीडोर है, इसको सुरक्षित रखते हुए रीवा के तराई क्षेत्र में नीलगाय की जनसंख्या विस्फोट पर नियंत्रण किया जा सकता है।

प्रो. रहस्यमणि मिश्रा, पर्यावरण एवं जीव विज्ञान विशेषज्ञ
(अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय रीवा के पूर्व कुलपति हैं)

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