बेरोजगारी की मार : भारत में केवल 7 फीसदी शहरी महिलाओं के पास नौकरियां, बेरोजगारी के बाद नौकरी पर बहाल होने के अवसर भी कम

 

            बेरोजगारी की मार : भारत में केवल 7 फीसदी शहरी महिलाओं के पास नौकरियां, बेरोजगारी के बाद नौकरी पर बहाल होने के अवसर भी कम

भारत जल्द ही चीन को पीछे छोड़कर विश्व की सबसे अधिक आबादी वाला देश हो जाएगा। लेकिन, कुछ अनुमानों के अनुसार देश में काम करने वाले लोगों की संख्या इस शताब्दी के मध्य तक ही चीन के बराबर हो पाएगी। दरअसल, इसका एक कारण है कि भारत में बहुत कम संख्या में महिलाएं पैसा कमाने वाले काम करती हैं। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन का कहना है, 2019 में केवल 20ऽ महिलाओं के पास जॉब था या वे जॉब की तलाश कर रही थीं। उधर, सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी ने नवंबर 2020 में नौकरियों और अन्य जॉब में शहरी महिलाओं की हिस्सेदारी केवल 7ऽ बताई है। कोरोना वायरस महामारी के दौरान महिलाओं को सबसे पहले जॉब गंवाना पड़ा। नौकरियों में उनकी वापसी भी देर से हुई है। स्कूलों के बंद होने से भी कई महिलाओं को काम छोड़ना पड़ा है। उन्हें घर में रहकर बच्चों की देखभाल करनी पड़ी।

कोविड-19 से महिलाओं के रोजगार पर खराब प्रभाव पड़ने के सामान्य कारण हैं। बड़ी संख्या में महिलाएं घरों में बर्तन मांजने, सफाई, खाना पकाने जैसे काम करती हैं जिनमें कम पैसा मिलता है। कई महिलाएं शिक्षक हैं। देश में चार लाख पचास हजार प्राइवेट स्कूल बंद हो गए थे। ये अब धीरे-धीरे खुल रहे हैं। महामारी ने महिलाओं के बीच पहले से मौजूद नौकरियों के ट्रेंड को बढ़ाया है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक लेबर फोर्स में महिलाओं की भागीदारी 2010 के 26ऽ से गिरकर 2019 में 21 ऽ रह गई थी। सीएमआईई लोगों के सक्रिय रूप से काम करने या काम की तलाश के आधार पर लेबर फोर्स की स्थिति का आकलन करता है। उसकी गणना के अनुसार लेबर फोर्स में महिलाओं की हिस्सेदारी 2016 के 16ऽ से कम होकर 2019 में 11 ऽ हो गई। ऐसा बड़े नोट बंद करने जैसी नुकसानदेह नीतियों और अर्थव्यवस्था में गिरावट के कारण हुआ है।

काम में महिलाओं की कम भागीदारी के कारण भारत में काम करने वाले लोगों की संख्या नहीं बढ़ सकी है। सीएमआईई के मुताबिक यह 2016 में 42 करोड़ थी और अब 40 करोड़ है। यदि भारत में रोजगार की दर चीन या इंडोनेशिया के बराबर होती तो यह 60 करोड़ के आसपास होती। सीएमआईई के प्रमुख महेश व्यास कहते हैं, अच्छे स्तर की नौकरियों के साथ कुल मिलाकर नौकरियों के सृृजन में विफलता सामने आई है। 2018 में एक सरकारी सर्वे में पाया गया कि 77ऽ लोग या तो स्वयं का काम कर रहे थे या आकस्मिक कामगार थे। यह अनुपात स्थिर है क्योंकि कंपनियां श्रम कानूनों को किनारे रखकर अस्थायी कामगार रखती हैं। व्यास कहते हैं, बेरोजगारी बढ़ने के बावजूद कंपनियाों का मुनाफा बढ़ा है और शेयर मूल्य रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गए हैं। कारोबार के नियम-कायदे कामगारों के खिलाफ हो गए हैं।

गरीबों पर सबसे अधिक मार

कोरोना वायरस से अमेरिका या ब्रिटेन की तुलना में भारत में प्रति दस लाख पर मौतों की दर दस प्रतिशत से कम है। नौकरियों के मामले में भारत की स्थिति बदतर है। सबसे अधिक मार गरीबों पर पड़ी है। जनवरी में मुंबई में एक सर्वे में पाया गया कि उच्च सामाजिक, आर्थिक हैसियत वाले 9ऽ लोगों का जॉब गया है। उनकी औसत दैनिक आय 1600 रुपए से घटकर 1200 रह गई। सबसे निचले स्तर पर 47ऽ लोगों का जॉब चला गया। उनकी रोजाना आमदनी 430 रुपए से घटकर 240 रुपए रही।

पुरुषों के मुकाबले महिलाओं को ज्यादा नुकसान

महिलाओं को बहुत नुकसान हुआ है। मुंबई में एक सर्वे से पता लगा कि 75ऽ पुरुषों ने बताया कि कोरोना संकट से उनके काम पर बुरा असर पड़ा है। दूसरी ओर 89 ऽ को अपने काम से हाथ धोना पड़ा है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के अनुसार 2019 में शहरों में 9.7ऽ महिलाएं काम कर रही थीं। लॉकडाउन के दौरान यह संख्या घटकर 7.4 ऽ रह गई। नवंबर में यह 6.9ऽ पर आ गई। सीएमआईई के एक लाख 70 हजार घरों के सर्वे में पाया गया कि लॉकडाउन के दौरान जॉब गंवाने वाले पुरुषों के कुछ माह के अंदर दूसरा जॉब पाने की संभावना महिलाओं से आठ गुना अधिक रही।

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