MP : हजार वर्ष पुराना है त्रिपुर सुंदरी मंदिर का इतिहास : हथियागढ़ की देवी के नाम से जानी जाती थीं, जबलपुर शहर से भेड़ाघाट रोड पर 13 किमी दूर है ये प्रसिद्ध मंदिर ....

 
MP : हजार वर्ष पुराना है त्रिपुर सुंदरी मंदिर का इतिहास : हथियागढ़ की देवी के नाम से जानी जाती थीं, जबलपुर शहर से भेड़ाघाट रोड पर 13 किमी दूर है ये प्रसिद्ध मंदिर ....

त्रिपुर सुंदरी मंदिर जबलपुर से 13 किमी दूर भेड़ाघाट रोड पर स्थित है। 11वीं शताब्दी में बने इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि यहां की मूर्ति 7वीं शताब्दी की है। यह कल्चुरी राजा कर्णदेव की कुलदेवी थीं। यहां लोग मन्नत के तौर पर नारियल बांधते हैं। पूरा होने पर खोलते हैं। मंदिर के पीछे एक व्यवस्थित नगर बसा था, जिसकी पुष्टि पुरातत्व की खुदाई में हो चुकी है। नवरात्र में यहां भारी भीड़ उमड़ती है।

तेवर के पास स्थित त्रिपुर सुंदरी मंदिर को लेकर कई तरह की किवदंतियां हैं। मंदिर अलौकिक प्राकृतिक वातावरण में स्थापित है। मंदिर के चारों ओर दिव्य मूर्तियों की एक शृंखला मिलती है, जिसका केंद्र बिंदु त्रिपुर सुंदरी मंदिर है। 5 किमी क्षेत्र के चारों ओर 52 झरने हैं। मंदिर के पीछे त्रिपुर नगर बसा था। मान्यता है कि यहां त्रिपुरासुर नाम का राक्षस का आतंक था। उसके वध के लिए भगवान विष्णु ने मां त्रिपुर सुंदरी का पूजन किया था। फिर उनके प्रभाव से भगवान शंकर ने त्रिपुरासुर राक्षस का संहार किया था।

जबलपुर शहर से भेड़ाघाट रोड पर 13 किमी दूर है मां त्रिपुर सुंदरी का ये प्रसिद्ध मंदिर।
जबलपुर शहर से भेड़ाघाट रोड पर 13 किमी दूर है मां त्रिपुर सुंदरी का ये प्रसिद्ध मंदिर।

कल्चुरी राजा कर्णदेव की कुलदेवी थीं मां त्रिपुर सुंदरी

मंदिर के मुख्य पुजारी 84 साल के रमेश प्रसाद दुबे के मुताबिक, मान्यता है कि राजा कर्णदेव मां का अनन्य भक्त था। राजा रोज खौलते हुए कढ़ाहे में कूद जाता था। मां भक्षण करने के बाद अमृत से उसे जीवित कर प्रसन्न होकर सवा मन सोना देती थीं। वर्तमान में इस मंदिर का प्रबंधन पुरातत्व विभाग करता है।

हथियागढ़ की देवी के नाम से जानी जाती थीं

वर्तमान में जहां मंदिर स्थापित है, उसे हथियागढ़ के नाम से जाना जाता था। इस कारण मां को हथियागढ़ की मां के रूप में माना जाता था। मां ने स्वप्न में त्रिपुर सुंदरी नाम से पुकारने का आदेश दिया, तभी से त्रिपुर सुंदरी मां के नाम से जानी जाने लगीं। इनके तीन रूप राजराजेश्वरी, ललिता और महामाया के माने जाते हैं।

मन्नत मांगने वाले लोग बांधते हैं नारियल।
मन्नत मांगने वाले लोग बांधते हैं नारियल।

ये तांत्रिक पीठ था

इतिहासविद डॉ. आनंद सिंह राणा के मुताबिक, त्रिपुर केंद्र तांत्रिक पीठ हुआ करता था। यहां तांत्रिक कठोर साधना कर भगवान शिव को प्रसन्न करते थे। पुराणों में दर्ज है कि मूर्ति शिव के पांच रूपों से बनी थी, जिसमें तत्पुरुष, वामदेव, ईशान, अघोर और सदोजात शामिल हैं। पुरातत्व विभाग यहां खुदाई कर एक व्यवस्थित नगर होने की पुष्टि कर चुका है। मंदिर के आसपास थोड़ा भी खुदाई करने पर कल्चुरी काल की सामग्री निकल आती है।

मुख्य पुजारी रमेश प्रसाद दुबे और उनके बेटे राम किशोर दुबे।
मुख्य पुजारी रमेश प्रसाद दुबे और उनके बेटे राम किशोर दुबे।

एक शिलाखंड के सहारे पश्चिम दिशा की ओर मुंह किए अधलेटी है प्रतिमा

मंदिर में स्थापित माता की मूर्ति भूमि से अवतरित हुई हैं। यह मूर्ति केवल एक शिलाखंड के सहारे पश्चिम दिशा की ओर मुंह किए अधलेटी अवस्था में मौजूद है। त्रिपुर सुंदरी मंदिर में माता महाकाली, माता महालक्ष्मी और माता सरस्वती की विशाल मूर्तियां स्थापित हैं। यहां शक्ति के रूप में 3 माताएं मूर्ति रूप में विराजमान हैं, इसलिए मंदिर के नाम को उन देवियों की शक्ति और सामर्थ्य का प्रतीक माना गया है।

1985 के बाद मंदिर लोगों के सामने आया

कल्चुरी शासन के पतन के बाद यहां घना जंगल हो गया था। 1985 के पहले यहां बेल का घना जंगल हुआ करता था। जहां मंदिर स्थापित है, वो एक किला था। उसी में ये प्राचीन मूर्ति थी। पास में ही एक गड़रिया रहता था, जो मूर्ति के पास अपनी बकरियां बांधा करता था। मंदिर के बड़े पुजारी रमेश प्रसाद दुबे का दावा है कि मूर्ति को लेकर मां ने उन्हें स्वप्न दिया था। इसके बाद वे नर्मदा जल और माला चढ़ाने लगे। धीरे-धीरे यहां श्रद्धालु बढ़ते गए और मंदिर का विकास होता गया। 84 साल की उम्र में भी वे अनवरत रूप से रोज मां नर्मदा का जल और पुष्प सबसे पहले अर्पित करते हैं।

मंदिर की दानपेटी के लिए इस तरह लोग लगाए जाते हैं। (फाइल फोटो)
मंदिर की दानपेटी के लिए इस तरह लोग लगाए जाते हैं। (फाइल फोटो)

मंदिर की दानपेटी से डॉलर सहित विदेशी मुद्रा निकलती है

मंदिर में आस्था रखने वालों में विदेशी भी शामिल हैं। बड़ी संख्या में यहां विदेशों से भी भक्त पहुंचते रहते हैं। वे चढ़ावे के तौर पर डॉलर, यूरो चढ़ाते हैं। मंदिर का प्रबंधन संभाल रहा प्रशासन और पुरातत्व विभाग ही चढ़ावे की रकम का वर्ष में एक बार गिनती करा कर उसे बैंक में जमा करता है। इस चढ़ावे की रकम से मंदिर में विकास कार्य कराए जाते हैं। यहां लोग नारियल बांध कर मन्नत मांगते हैं और पूरी होने पर उसे खोल कर हवन कुंड में डाल देते हैं।

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