MP में प्राकृतिक खेती को मिल रहा बढ़ावा : जानिए क्या है जीरो बजट प्राकृतिक खेती..
कुशाभाऊ ठाकरे इंटरनेशनल कंवेंशन सेंटर भोपाल में जीरो बजट प्राकृतिक कृषि पद्धति पर राज्य स्तरीय कार्यशाला का आयोजन किया गया। कार्यक्रम में राज्यभर से 1 लाख 65 हजार से ज्यादा किसान जुड़े। इस दौरान अलग-अलग राज्यों में जाकर प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दे रहे गुजरात के राज्यपाल आचार्य देवव्रत ने एमपी के किसानों को प्राकृतिक खेती के बारे में विस्तृत जानकारी दी।
प्राकृतिक खेती को उन्होंने इन दोनों से बेहतर और अधिक उत्पादन देने वाली पद्धति बताते हुए कहा कि पद्मश्री डॉ. सुभाष पालेकर ने इस पद्धति को प्रकाश में लाया था। इसमें किसान को नकद पैसे की आवश्यकता नहीं पड़ती। फसल में उपयोग होने वाले सारे उत्पाद घर में आसानी से तैयार किए जा सकते हैं। यह देशी गाय आधारित कृषि पद्धति है, जिसमें एक देशी गाय के गोबर से लगभग 30 एकड़ की खेती की जा सकती है।
संक्षेप में समझिए प्राकृतिक कृषि के चार चरण
राज्यपाल आचार्य देवव्रत ने बताया प्राकृतिक कृषि के जीवामृत, बीजामृत, आच्छादन और वाफसा ये चार चरण हैं। जो भी किसान इन चारों प्रक्रिया को विधिवत तरीके से करेगा उसे निश्चित तौर उसकी उत्पादन क्षमता बढ़गी।
जीवामृत निर्माण की विधि
गोबर, गोमूत्र, गुड़ और दो दले बीजों का आटा या बेसन आदि के मिश्रण से बना फार्मूला है। इन सभी सामाग्रियों को प्लास्टिक के एक ड्रम में डाल कर लकड़ी के एक डंडे से घोला जाता है और इस घोल को सड़ने के लिए दो से तीन दिन तक छाया में रख दिया जाता है। इस दौरान इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि घोल में लकड़ी का संचालन सुई की दिशा में किया जाए ताकि जीवाणुओं को ऑक्सीजन मिल पाए। वहीं इसके सड़ने से अमोनिया, कार्बनडाई आक्साइड, मीथेन जैसी हानिकारक गैसों का निर्माण होता है, इसलिए इसे ढकना अनिवार्य है।
देशी गाय का गोबर 10 किग्रा
गोमूत्र 8-10 लीटर
गुड़ 1-2 किग्रा
बेसन 1-2 किग्रा
पानी 180 लीटर
पेड़ के नीचे की मिट्टी 1 किग्रा
उपयोग की विधि:
जीवामृत को महीने में दो बार या एक बार उपलब्धता के अनुसार, 200 लीटर प्रति एकड़ के हिसाब से सिंचाई के पानी के दिया जा सकता है। इसका छिड़काव गन्ना, केला, गेहूं, ज्वार, मक्का, अरहर, मूंग, उड़द, चना, सूरजमुखी, कपास, अलसी, सरसो, बाजरा, मिर्च आदि की फसलों पर इसका छिड़काव किया जा सकता है। वहीं फलदार पौधों पर भी इसका छिड़काव किया जा सकता है।
घनजीवामृत:
जीवामृ़त के अंतर्गत घनजीवामृत आता है। फसल की बुआई के समय प्रति एकड़ 100 कि ग्रा छाना हुआ गोबर खाद और 100 कि ग्रा घनजीवामृत मिलाकर बीज बोने से उत्पादन क्षमता बढ़ती है। घनजीवामृत का निर्माण करने के लिए 100 कि ग्रा देशी गाय का गाेबर, 1 कि ग्रा गुड़, 1 कि ग्रा दलहन का आटा, एक मुठ्ठी खेती की मिट्टी और थोड़े से गोमूत्र को मिलाकर हलवे की तरह गाढ़ा मिश्रण बनाना होता है। इस मिश्रण को बोरे से ढककर रखिए और थोड़ा पानी छिड़क दें। इसे सूखाकर आप इसका उपयोग छह माह तक कर सकते हैं।
ऐसे करते हैं उपयोग:
घनजीवमृत के लड्डू बनाकर पेड़-पौधों के पास रख दीजिए ताकि जीवामृत जड़ाें तक पहुंच सकें। ध्यान रहे, इसके लिए भूमि में नमी नहीं होनी चाहिए।
बीजामृत निर्माण की विधि और उपयोग:
सिंचाई शुरु करने के पहले बीजों का संशोधन करना बेहतर होता है। जीवामृत की तरह बीजामृत के निर्माण में देशी गाय के गोबर, गोमूत्र, चूना या कली, पानी और खेत की मिट्टी का उपयोग होता है।
देशी गाय का गोबर 5 किग्रा
गोमूत्र 5 लीटर
चूना या कली 250 ग्राम
पानी 20 लीटर
खेत की मिट्टी मुट्ठी भर
इन सभी के मिश्रण को 24 घंटे तक रखना है और दिन में कम से कम दो बार लकड़ी से हिलाना है। इसके बाद बीजों के ऊपर बीजामृत डालकर उन्हें शुद्ध किया जा सकता है और इन बीजों को छांव में सुखाकर बुआई की जा सकती है। बीजामृत से शुद्ध हुए बीज जल्दी और ज्यादा मात्रा में उगते हैं। साथ ही पौधे भूमि से उपजने वाली बीमारियों से बचे रहते हैं।
जानिए क्या होता है आच्छादन:
मिट्टी की बाहरी सतह को किसी भी तरह की हानि से बचाने के लिए मिट्टी आच्छादन का इस्तेमाल करते हैं। इसमें खेत की सतह पर ज्यादा मिट्टी को एकत्रित करके रोका जाता है, जिससे कि मिट्टी की जल प्रतिधारण क्षमता (Water retaining capacity) बेहतर बनी रहे।
उपयोगिता:
मिट्टी की नमी को संरक्षित रखने के लिए आच्छादन का सहारा लिया जाता है। इससे खेती के दौरान मिट्टी की गुणवत्ता को नुकसान नहीं होता। आच्छादन से पानी की खपत कम होती है वहीं जीवाणु और केचुओं की गतिविधि भी बढ़ती है। इतना ही नहीं, मल्चिंग से खरपतवार (Weed) की समस्या का भी समाधान हो जाता है। इसके अलावा कार्बन उत्सर्जन को रोकने और भूमि की जैविक कार्बन क्षमता बढ़ाने में भी ये मददगार है।
वाफसा:
भूमि में हर दो मिट्टी के कणों के बीच खाली जगह जिसमें पानी का अस्तित्व बिल्कुल नहीं होता उसे वाफसा कहते हैं। इसमें हवा और वाष्प कणों का सामान मात्रा में मिश्रण होता है। सीधे शब्दों में कहा जाए तो हवा और वाष्प के समान मिश्रण को वाफसा कह सकते हैं। इसमें सिंचाई के स्थान पर मृदा में नमी एवं वायु की उपस्थिति को महत्त्व दिया जाता है।
भूमि को जल की नहीं वाफसा की आवश्यकता होती है, क्योंकि कोई भी पौधा या पेड़ अपनी जड़ों से भूमि में से जल नहीं लेता। बल्कि,वाष्प के कण और ऑक्सिजन के कण से लेता है। भूमि में केवल इतना ही जल देनी की जरुरत होती है जितना कि भूमि उस जल से वाष्प का निर्माण कर सके और यह पौधों या फल के पेड़ों को उनके दोपहर की छांव के बाहर पानी देने से होता है।
समझिए, आखिर क्यों देशी गाय का गोबर प्राकृतिक खेती के लिए है महत्वपूर्ण:
राज्पाल आचार्य देवव्रत ने एक रिसर्च का हवाला देते हुए बताया कि देशी नस्ल की दूधारू गायों के 1 ग्राम गोबर में 300 करोड़ से भी ज्यादा जीवाणुओं का निर्माण होता है। वहीं ऐसी देशी गाय जिन्हें दूध न देने पर हम छोड़ देते हैं उनके 1 ग्राम गोबर से लगभग 500 करोड़ जीवाणुओं का निर्माण होता है। ये जीवाणु खेत की उर्वरक क्षमता बढ़ाने में सहायक होते हैं।
इसलिए भी प्राकृतिक खेती है अन्य से बेहतर:
प्राकृतिक खेती की पद्धति प्रकृतक, विज्ञान और अध्यात्म और अहिंसा पर आधारित है।
इस पद्धति में रासानियक खाद, गोबर खाद, जैविक खाद, केंचुआ खाद और जहरीले कीटनाशक, रासानियक खरपतवार नाशक डालने की आवश्यकता नहीं है। देशी गाय की सहायता से इस खेती को कर सकते हैं।
इस पद्धति में केवल 10 प्रतिशत पानी और 10 प्रतिशत बिजली की आवश्यकता होती है।
रिसर्च के अनुसार इस पद्धति से फसलों का उत्पादन अन्य विधियों की अपेक्षा ज्यादा होता है।