TODAY EXCLUSIVE REPORT : मर्दों को नहीं भाती कमाऊ औरतें : वे दफ्तर से लौटें तो किचन महमहाता रहे, बीवी के बाल संवरे हों; मुस्कान गेंदे सी खिली हो

 

TODAY EXCLUSIVE REPORT : मर्दों को नहीं भाती कमाऊ औरतें : वे दफ्तर से लौटें तो किचन महमहाता रहे, बीवी के बाल संवरे हों; मुस्कान गेंदे सी खिली हो

हिंद महासागर से घिरे पड़ोसी मुल्क श्रीलंका में उथलपुथल मची हुई है। देश चलाने वाले महलों से गायब हैं और भूखी जनता स्विमिंग पूल में तैर रही है। उधर रूस-यूक्रेन की जंग कयामत तक चलने की आशंका है। ब्रिटेन में अलग तूफान पसरा है। तमाम दुनिया में किस्म-किस्म की हलचलों के बीच हमारे यहां की छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने हाल में एक फैसला सुनाया, जिसमें कहा गया कि विधवा भी अपने ससुराल वालों से भरण-पोषण मांग सकती है। बता दें कि हिंदू विवाह अधिनियम में अब तक इसे लेकर कोई साफ बात नहीं थी।

मामला कोरबा का है। साल 2008 में वहां की एक युवती का ब्याह जांजगीर के युवक से हुआ। पति की असमय मौत के बाद ससुराल वालों ने अपशकुनी कहते हुए लड़की को घर से निकाल दिया। पीहरवालों की मोहताज युवती ने थककर ससुर से भरण-पोषण की मांग की।

लोअर कोर्ट के इनकार के बाद केस हाईकोर्ट पहुंचा, जहां जज ने 7 साल बाद उसके पक्ष में फैसला सुनाते हुए कहा कि चूंकि पति की असमय मौत हो चुकी, और विधवा के पास दूसरा कोई आसरा नहीं, ऐसे में उसकी जिम्मेदारी ससुराल की होनी चाहिए, खासकर तब, जब उनके पास पैसों की कोई कमी नहीं।

पहली नजर में देखें तो युवती को इंसाफ मिल गया। अब मायके में रहने या ससुराल वालों के ताने सुनने की बजाय वो अपना एक कमरा लेकर रह सकेगी। शायद बिनाई-बुआई करके थोड़ा-बहुत कमा भी ले। ये भी हो सकता है कि आगे चलकर वो मोटिवेशनल स्पीकर बन जाए, लेकिन मुद्दा ये नहीं। असल चीज ये है कि क्यों कोई ब्याहता शौहर की मौत के बाद गुजर-बसर के लिए मुंह ताकने पर मजबूर हो जाती है!

क्या हमने कभी किसी विधुर को ससुराल से भरण-पोषण मांगते देखा है? नहीं! इंटरनेट पर बहुत खंगाला और ऐसा कोई मामला मुझे भी नहीं दिखा। बीवी गंवा चुका मर्द खुद कमाता है और ऐसा शानदार कमाता है कि नई शादी करके ब्रांड-न्यू बीवी और नए बच्चों की भी परवरिश कर सके। फिर क्या वजह है जो ज्यादातर औरतें पति की मौत के बाद पैसे-कौड़ी के मामले में गरीब की दावत बनकर रह जाती हैं! वजह समझना खास मुश्किल नहीं, अगर गौर करें।

ऑस्ट्रेलियाई वित्त एवं श्रम विभाग के साल 2018 के सर्वे में पता लगता है कि मर्दों को वही पत्नी भाती है जो शादी के बाद काम छोड़कर घर संभाले। यूनिवर्सिटी ऑफ मेलबोर्न ने इस सर्वे को लीड किया, जिसमें बार-बार संतुष्टि शब्द निकलकर आया। वो पति ज्यादा संतुष्ट रहता है, दफ्तर से लौटने पर जिसे घर पर इंतजार करती बीवी मिले। सर्वे में ये भी निकलकर आया कि अगर पत्नी कामकाजी हो, और पति घर संभाले तो शादी टूटने की आशंका बढ़ जाती है।

नतीजे हवा-हवाई न होकर सच के ज्यादा करीब हों, इसके लिए विभाग ने 14 सालों तक लगभग साढ़े 4 हजार परिवारों का पैटर्न देखा। इनमें से लगभग 5 सौ घर टूट गए। ये वही घर थे, जहां अकेली औरतें कमाती थीं। बाकी घर बने रहे क्योंकि (सर्वे के मुताबिक) वहां की औरतें ‘वही’ काम करती थीं, जो उनके लिए तय है, यानी वे हाउस वाइफ थीं।

कल्पना करो तो ऐसे घर वाकई जन्नत लगते हैं। पति दफ्तर की चांय-तांय से ऊबा हुआ घर लौट रहा होगा, उतने में बीवी एक तरफ चाय का भगौना चढ़ा देगी, दूसरी तरफ मौसमी नाश्ता पकता रहेगा। साथ-साथ में दौड़कर घर का मुआयना भी करती जाएगी। कुशन पर ताजा गिलाफ चढ़ाएगी। बजट साथ दे तो गुलदान में फूल सजाएगी और खुशबूदार मोमबत्तियां जलाएगी। सब हो चुकने के बाद अपना सिंगार-पटार देखेगी। बाल संवरे हों, चेहरे पर कहीं थकान न हो और मुस्कान सर्दियों के गेंदे की तरह खिली दिखे।

पीरियड्स के दर्द को लोग दर्द ही नहीं समझते, उन्हें लगता है काम से बचने के लिए ये औरतों का बहाना है

पति के लौटते ही कुंडी भले बाद में खड़के, दरवाजा पहले खुल जाएगा। अब ऐसे घर, और ऐसी बीवी को भला कौन शौहर छोड़कर जा सकेगा। तो बस! गंदी लॉज के बिस्तर से खटमल भले एकबारगी गायब हो जाएं, लेकिन ऐसे घर से शौहर का रिश्ता हमेशा बना रहता है।

ब्रिटिश चैंबर की ट्वेन्टीअथ सेंचुरी डिक्शनरी में हाउसवाइफ के दो अर्थ हैं- घर संभालने वाली स्त्री और सिलाई की छोटी डिबिया। बता दें कि जेब या पर्स में समा सकने वाली सिलाई के डब्बे को हसविफ (huswif) कहते हैं, इसी से हाउसवाइफ शब्द निकला।

डिक्शनरी में ये जिक्र नहीं कि सिलाई की डिबिया और गृहणी में क्या समानता होती है। हालांकि ये समझना खास मुश्किल नहीं। पहले विश्व युद्ध के कुछ पहले तक दुनिया के लगभग सभी देशों की लगभग सभी औरतें घर पकाने-रांधने, बच्चे संभालने के साथ एक और अहम काम जो करती थीं, वो था सीना-पिरोना। अजन्मे बच्चे से लेकर चौड़े सीने वाले शौहर, और कब्र में जाने से इनकार करते बुजुर्गों तक के लिए वो कपड़े सिला करतीं। इस तरह से बेआवाज ही वो इंसान से सिलाई किट में बदल गईं।

चलिए, पुरानी बात छोड़कर नए और देसी हालात देखते हैं।

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (NHFS) की इसी साल मई की रिपोर्ट बताती है कि हमारे यहां 15 से 49 साल की 32% औरतें ही कामकाजी हैं। कामकाजी यानी वे जो दफ्तर जाती हैं, और जिन्हें इसके बदले सैलरी मिलती है। इसी डेटा को आगे बढ़ाते हुए सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकनॉमी (CMIE) कहती है कि शादी के बाद ज्यादातर (कितनी कम या ज्यादा, ये खुलासा नहीं हुआ) युवा महिलाएं फुल-टाइम छोड़कर पार्ट-टाइम पर आ जाती हैं। कई औरतें जॉब को बच्चों के बड़ा होने और उनका घर बसने तक के लिए मुल्तवी कर देती हैं। लब्बोलुआब ये कि वे अपनी डिग्रियां लॉकर में भूलकर हाउसवाइफ हो जाती हैं।

औरतें सीने को उभारदार और होंठों को स्ट्राबेरी सा बनवाने के लिए दर्द झेलती हैं ताकि मर्दों का प्रेम बना रहे

अब एक नया ढकोसला शुरू हुआ है- होममेकर नाम का। लोग (पढ़ें पुरुष) गर्व से अपनी पत्नी को किसी से मिलवाते हुए कहते हैं- ये होममेकर हैं, ‘मेरा’ सारा घर इनसे ही बसता है। बीवी इसपर लहालोट होते हुए शर्बत में चम्मचभर एक्स्ट्रा चीनी मिला देती हैं और पढ़ाई-लिखाई छूटने का सारा दर्द भुला देती है।

होममेकर होने में बुराई नहीं लेकिन तभी, जब ये म्युचुअल चॉइस हो। जब दफ्तर की बजाए घरेलूपन चुनते मर्द को देखकर नाक-भौं सिकुड़ना बंद हो जाए, या जब गृहणी अपने बारे में बताते हुए ‘मैं कुछ भी नहीं करती’ कहना बंद कर दे, असल बदलाव तभी शुरू होगा।

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