REWA : महिला लेक्चरर की अनोखी पहल : अशिक्षित बच्चों को शिक्षित बनाने का लक्ष्य, ऐसी है निशा पांडे की कहानी

 
प्राध्यापिका निशा पाण्डेय

इमली के पेड़ के नीचे बच्चों की पाठशाला

REWA NEWS : शहर की निराला नगर बंसल बस्ती में कबाड़ बीनने वाले रहते हैं। यहां चारों तरफ कबाड़ का स्टाक है। नाले की दुर्गंध के कारण 10 सेकंड रुकना मुश्किल है। एक तरफ रीवा शासकीय पॉलीटेक्निक महाविद्यालय की बाउंड्री तो दूसरे तरफ माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय का कैंपस है।

दुर्गंध के बीच सुबह शाम बच्चों की किलकारी प्राध्यापिका निशा पाण्डेय के कानों में गूंजने लगी। एक महीने शिक्षिका को नींद नहीं आई। मन में एक ही बात, इन बच्चों का क्या कसूर। रात में सपना आया। निशा तुम कुछ करो। उसी रात मैडम ने ठान लिया। बच्चों के लिए कुछ न कुछ जरूर करूंगी।

2009 में पीएससी क्वालीफाई कर बनी लेक्चरर

मीडिया से बातचीत में निशा मिश्रा ने बताया कि नौड़िया रीठी गांव में डॉ. बाल्मीक प्रसाद मिश्रा के घर में उनका 20 अप्रैल 1982 में जन्म हुआ। पिता रीवा शासकीय संस्कृत महाविद्यालय में प्राचार्य से रिडार्यड है। बचपन से गीता भागवत सुनने वाली निशा पाण्डेय 1 से 10 तक की पढ़ाई पाण्डेयन टोला स्कूल से की।

11वीं और 12वीं एसके स्कूल उपरहटी से गणित समूह से पढ़ाई कर शासकीय महाविद्यालय रीवा से सिविल इंजीनियरिंग की। वर्ष 2009 में निशा पाण्डेय का टेक्निकल से पीएसपी में सलेक्शन हो गया। इसी साल बतौर लेक्चरर निशा पाण्डेय ने शासकीय पॉलीटेक्निक महाविद्यालय में ज्वाइनिंग दी। कॉलेज में बच्चों को पढ़ाते-पढ़ाते हर एक सामाजिक गतिविधियों में भाग लेने लगी।

टीवी, मोबाइल और झंडा पहुंचा घर घर, पर शिक्षा क्यों नहीं पहुंची!

साल 2009 में ही निशा मिश्रा की शादी बिजनेसमैन आशीष पाण्डेय समान बांध गौतम नगर में हो गई। पांच साल बाद बेटी का जन्म हुआ। 2019 में बेटी स्कूल जाने लगी। 2020 में कॉलेज आते और जाते समय बंसल बस्ती के मासूम बच्चों को दीवार के किनारे बैठाकर कहानी सुनाया करती थी। बच्चे टॉफी खाते और ध्यान से कहानी सुनते। तभी लगा टीवी, मोबाइल और झंडा घर घर पहुंच गया। पर शिक्षा क्यों नहीं पहुंची! झुग्गी तक शिक्षा न पहुंचने के लिए समाज का हर आमदी जिम्मेदार है। हैं तो अपने देश के नागरिक ही। इनका भी आधार कार्ड बना है।

गीता के चौथे अध्याय में लिखा श्रीकृष्ण का श्लोक याद आया गीता के चौथे अध्याय में श्रीकृष्ण का श्लोक है। उसमे स्पष्ट लिखा है। पढ़े लिखों का काम है, समाज को पढ़ाना। अर्थात वर्ण व्यवस्था भी इसी आधार पर बनी थी। तभी मेरा जमीर जागा। मैने इमली के पेड़ के नीचे ब्लैक बोर्ड लेकर पहुंच गई। पहले बच्चों को शिक्षा से जोड़ती फिर स्कूल तक पहुंचाने का संकल्प ले लिया। आज हमारी पाठशाला के 10 बच्चे शासकीय माध्यमिक स्कूल मंदिरिया में पढ़ने जाते है। साथ ही पाठशाला में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या 20 से 30 तक पहुंच गई है। इन बच्चों को पाठय पुस्तक और कपड़े देना। हमारी जिम्मेदारी है। यहां तक की सैलरी का एक तिहाई हिस्सा, इन्हीं में खर्च में कर देती हूं।

बच्चे बनना चाह रहे डॉक्टर, इंजीनियर व शिक्षक

प्राध्यापिका ने कहा कि पाठशाला के सभी बच्चे डॉक्टर, इंजीनियर और शिक्षक बनना चाह रहे है। मेरा मानना है कि हर इंसान को शिक्षा के अधिकार का हक है। लेकिन झुग्गी में रहने वाले माता पिता बच्चों से कम उम्र में ही कबाड़ बीनने के कार्य में लगा देते है। उनको शिक्षा से दूर करने का ज्ञान देते है। बल्कि नशा आदि चीजों में फोकस करते है। महीनों पढ़ाने के बाद बच्चे खुद अपनों को इसका जिम्मेदार मानते है। लेकिन हम मां बाप को तो नहीं बदल सकते। पर बच्चों को बदलने की कोशिश जारी रखी है।

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