REWA : आयुर्वेदिक चिकित्सा का चमत्कार : जोंक पद्धति से मायूस युवक का किया जा रहा सफलतापूर्वक उपचार

 
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REWA NEWS : रीवा। शहर में पैर की उंगलियों में गैंगरीन जैसे गंभीर बीमारी से पीड़ित युवक उत्तर प्रदेश एवं महाराष्ट्र के नामी-गिरामी चिकित्सकों से उपचार कराने एवं लाखों रुपए फूटने के बाद भी कोई लाभ नहीं हुआ चिकित्सक उसके पैर काटने की तैयारी में लगे हुए थे। किसी भी रीवा स्थित आयुर्वेदिक चिकित्सालय में जहां युवक किसी की सलाह पर पहुंचा जहां पर चिकित्सकों द्वारा योग पद्धति से युवक का उपचार शुरू किया धीरे-धीरे युवक स्वस्थ हो रहा है।

प्राचार्य ने बताया

प्राचार्य डॉ. दीपक कुलश्रेष्ठ ने बताया कि संजय पाण्डेय पुत्र शेषमणि पाण्डेय 35 वर्ष निवासी ग्राम चउरी पोस्ट त्योटी के पैर की उंगलियों के बीच गैंगरीन हो गई थी। प्रयागराज, रीवा और नागपुर के चिकित्सक लाखों रुपए लेकर पैर काटने वाले थे। 6 माह पहले युवक आयुर्वेद कॉलेज के ओपीडी में आया। यहां विधिवत जांच की गई।

तब पता चला कि बारिश के समय में होने वाली कदरी की तरह (पैरों की उंगलियों में फंगल इंफेक्शन) गैंगरीन हो गई है। जिससे पैर नीला पड़ रहा है। आयुर्वेद चिकित्सकों की टीम ने जोंक पद्धति से पूरा इलाज किया है। हर सप्ताह मरीज को बुलाकर जोंक पद्धति (आयुर्वेद भाषा में जलोका, इंग्लिश में ​Leech) से उपचार कर मरहम पट्टी की। अब पैर के घाव 60 फीसदी रिकवर हो गए है। कुल मिलाकर जोंक पद्धति से युवक के लिए नजीर है।

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जोंक दूषित रक्त को चूस लेती है। सबसे महत्वपूर्ण यह बात है कि वह जोंक जो रसायन छोड़ती है। उसके लार से जल्द घाव रिकवर होते हैं।

क्या है जोंक पद्धति

मीडिया से चर्चा में डॉ. दीपक कुलश्रेष्ठ एमडी शल्य-शालाक्य ने बताया कि जोंक पद्धति को हम लीच थेरेपी के नाम से जानते है। आयुर्वेद की भाषा में जलोका बचारण कहते हैं। लीच एक प्रकार का जीव-जंतु है। जिसको आम जनता जोंक के नाम से जानती है। इसका प्रयोग ग्रंथों में 3 हजार साल से हो रहा है। विशेष रूप से प्रयोग जहां पर नशों की रुकावट होती है। उस प्रकार की बीमारियों में इसका प्रयोग कर सकते है। ​जैसे हार्ट के ब्लॉकेज में, माइग्रेन में, एग्जिमा आदि में किया जाता है। कुल मिलाकर सूजन को हटाने में उपयोगी साबित होता है।

ऐसे किया जाता है इलाज

विशेष रूप से बर्गर डिजीज और गैंगरीन जो लाइलाज बीमारी है। इसका मेडिकल साइंस में कोई उपचार नहीं है। गैंगरीन होने पर अंगों को काट कर निकाल दिया जाता है। फिर भी हम घाव वाले स्थान पर जोंक को लगाते है। जहां पर वह बीमारी होती है। जोंक दूषित रक्त को चूस लेती है। सबसे महत्वपूर्ण यह बात है कि वह जोंक जो रसायन छोड़ती है। उसके लार से जल्द घाव रिकवर होते हैं। क्योंकि जोंक के लार से 65 प्रकार के तत्व निकलते हैं। वो सलाइवा के माध्यम से व्यक्ति के रक्त में छोड़ती है। जोंक के लार से निकलने वाले केमिकल रोगी के शरीर पर घूमते हैं। फिर बीमारी वाले स्थान पर असर छोड़ते हैं।

निपनिया में मिल रहा उपचार, आम जनता अनजान

डॉ. विकास खरे ने बताया कि शासकीय आयुर्वेद महाविद्यालय निपनिया रीवा की स्थापना सन 1972 में हुई। ये कॉलेज, मेडिकल यूनिवर्सिटी जबलपुर के आधीन है। यहां 10 वर्षों से जलोका (​Leech) मतलब जोंक पद्धति से गैंग्रीन, माइग्रेन, एक्जिमा, हार्ट के ब्लॉकेज, सफेद दाग, बालों का झड़ना, गठिया, बात, जोड़ों का दर्द, नसों से सं​बंधित बीमारी आदि का उपचार किया जाता है। कॉलेज कैंपस में सुबह व शाम अीपीडी चलती है। जहां अन्य गंभीर बीमारियों का इलाज आसानी से किया जाता है।

प्रदेश में 7 सरकारी व 20 निजी कॉलेज

डॉ. एसएन तिवारी ने बताया कि प्रदेशभर में 7 सरकारी व 20 निजी आयुर्वेद कॉलेज संचालित हो रहे हैं। एमपी में शासकीय आयुर्वेद महाविद्यालय रीवा, शासकीय आयुर्वेद महाविद्यालय उज्जैन, शासकीय आयुर्वेद महाविद्यालय भोपाल, शासकीय आयुर्वेद महाविद्यालय इंदौर, शासकीय आयुर्वेद महाविद्यालय जबलपुर, शासकीय आयुर्वेद महाविद्यालय ग्वालियर, शासकीय आयुर्वेद महाविद्यालय बुरहानपुर में प्राचीन पद्धति से इलाज हो रहा है। सभी कॉलेजों में जलोका (​Leech) थेरपी का अच्छा रिस्पांस है।

अब सुनते है मरीज की जुबानी, जोंक पद्धति से इलाज की कहानी

मेरा नाम संजय पाण्डेय है। वर्ष 2012 में मुंबई की करेंसी कंपनी में नौकरी कर रहा था। तभी पैर में कदरी की तरह गैंगरीन हो गई। रीवा आकर इलाज कराया। चिकित्सकों ने दो उंगलियां काट दी। फिर एक बार परदेश कमाने चला गया। कुछ सालों तक आराम रहा। इसके बाद दूसरे पैर में भी गैंगरीन बन गई। पैर नीला पढ़ने लगा। ऐसे में प्रयागराज के नैनी में इलाज कराने गया। चिकित्सकों ने कहा कि स​र्जरी के बाद 8 महीने भर्ती होना पड़ेगा। ऑपरेशन का खर्चा 90 हजार आएगा।

प्राथमिक उपचार लेकर रीवा आ गया। फिर दोबारा संजय गांधी अस्पताल पहुंचा। यहां चिकित्सकों ने कोई सही राय नहीं दी। ऐसे में डर कर नागपुर चला गया। वहां दो निजी अस्पताल सहित मेडिकल कॉलेज में 12 से 13 लाख इलाज में लगा दिए। अंत में चिकित्सकों ने कहा कि पैर काटना पड़ेगा। मैंने कहा कि जब पैर ही काटना था तो अभी तक लाखों रुपए लेकर क्या किए। निराश होकर रीवा आ गया। यहां एक एंबुलेंस के चालक ने निपानिया स्थित आयुर्वेद कॉलेज का पता दिया। वहां पहुंचा तो आयुर्वेद पद्धति देख ​जिंदगी में नया सवेरा हुआ।

हर सप्ताह जाना पड़ता है मरहम पट्टी कराने

बातचीत में मरीज संजय पाण्डेय ने बताया कि शल्य-शालाक्य विभाग के विभागाध्यक्ष एवं प्राचार्य आयुर्वेद कॉलेज डॉ. दीपक कुलश्रेष्ठ ने परामर्श दिया। फिर शल्य-शालाक्य चिकित्सक डॉ. विकास खरे ने इलाज शुरू किया। ​अगस्त 2022 से अभी तक दो दर्जन बार अस्पताल गया हूं। जोंक पद्धति से 6 महीने के भीतर 50 से 60 फीसदी आराम मिला है। अगर मैं आर्युेद कॉलेज में इलाज न लेता तो आज पैर विहीन होता। क्योंकि मध्यम परिवार होने के चलते बाहर इलाज कराने का पैसा नहीं था। जो जमा पूंजी थी, इलाज के दौरान खत्म हो चुकी है। आयुर्वेद कॉलेज में आना जाना और बाहर से कई दवा का हजार रुपए के आसपास खर्चा है। पूरे 6 महीने में 24 हजार रुपए लगे हैं।

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