"मेरी बेटी अब मेरे बराबर हो गई है..." रीवा में 18 बंदियों की रिहाई, सालों बाद अपनों से मिलकर छलका दर्द

Independence Day पर रीवा जेल से 18 आजीवन कारावास बंदियों की रिहाई। अच्छे व्यवहार के कारण मिली आजादी, परिजनों से मिलकर खुशी के आंसू छलके।
ऋतुराज द्विवेदी,रीवा/भोपाल। स्वतंत्रता दिवस का पर्व पूरे देश के लिए एक नई उम्मीद और आजादी का संदेश लेकर आता है। इस बार यह पर्व रीवा की जेल में बंद 18 बंदियों के लिए किसी चमत्कार से कम नहीं था। जिन्होंने अपनी जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा सलाखों के पीछे काट दिया था, उन्हें इसी दिन नई जिंदगी की सौगात मिली। लेकिन यह रिहाई सिर्फ एक सरकारी आदेश नहीं थी, बल्कि एक लंबी प्रक्रिया का परिणाम थी। बहुत से लोग जानना चाहते हैं कि जेल से रिहाई कैसे होती है? इसका जवाब इन 18 बंदियों की कहानी में छिपा है।
इन सभी बंदियों ने आजीवन कारावास की सजा काटते हुए जेल के भीतर अपने आचरण में सुधार किया। उनके अच्छे व्यवहार, जेल नियमों का पालन करने और अपराध से दूर रहने की प्रतिबद्धता को देखते हुए, जेल प्रशासन ने सबसे पहले उनके नाम जिला समिति के पास भेजे। यह समिति बंदियों के पूरे रिकॉर्ड, उनके केस की गंभीरता और जेल में उनके बर्ताव का गहन अध्ययन करती है। जिला समिति से मंजूरी मिलने के बाद, यह प्रस्ताव राज्य सरकार के पास भेजा जाता है। राज्य सरकार, जो क्षमादान की शक्ति रखती है, ऐसे मामलों में बंदियों की रिहाई के प्रस्तावों पर विचार करती है। स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस जैसे राष्ट्रीय पर्वों पर बंदियों की रिहाई इसी प्रक्रिया के तहत होती है, जहां सरकार अपने अच्छे आचरण वाले बंदियों को दूसरा मौका देती है।
इस बार भी यही प्रक्रिया अपनाई गई। रीवा जेल के प्रशासन ने 19 बंदियों के नाम भेजे थे, जिनमें से 18 को राज्य सरकार की ओर से हरी झंडी मिल गई। ये 18 बंदी, जिनमें 17 पुरुष और 1 महिला शामिल थी, अपनी रिहाई की खबर सुनकर भावुक हो उठे थे। यह उनके लिए एक सपने के सच होने जैसा था। उनकी रिहाई की खबर सुनते ही उनके परिजन भी खुशी से फूले नहीं समाए और वे फूल-मालाएं लेकर जेल के गेट पर उनका इंतजार करने लगे। यह पल उस कहानी का सबसे खूबसूरत हिस्सा था, जहां कई सालों बाद बिछड़े हुए लोग एक-दूसरे से मिलने वाले थे। यह केवल कानूनी प्रक्रिया का अंत नहीं था, बल्कि एक नए अध्याय की शुरुआत थी।
आजीवन कारावास में कितने साल होते हैं और सजा काटने का दर्द
आजीवन कारावास, जिसे आमतौर पर उम्रकैद कहा जाता है, का मतलब यह नहीं है कि दोषी को पूरी जिंदगी जेल में रहना पड़ेगा। भारत में, आजीवन कारावास का मतलब दोषी की शेष जिंदगी के लिए सजा होता है, लेकिन सरकार और अदालतें समय-समय पर कैदियों के आचरण के आधार पर उनकी सजा में छूट दे सकती हैं। रीवा के इन बंदियों ने इसी छूट का लाभ उठाया। इनमें से कई ऐसे थे, जिन्होंने 15 से 20 साल या उससे भी ज्यादा समय जेल की चारदीवारी के पीछे बिताया था। आजीवन कारावास में कितने साल होते हैं, यह सवाल उस दर्द और समय की कीमत को दर्शाता है जो इन बंदियों ने खोया था।
जेल से बाहर आए एक बंदी की आँखों में दर्द और खुशी दोनों साफ झलक रहे थे। उन्होंने भावुक होकर कहा, "किसी दुश्मन को भी जेल की सजा न मिले।" यह बात सुनकर वहाँ मौजूद हर व्यक्ति की आँखें नम हो गईं। उन्होंने आगे कहा कि जब उन्हें सजा हुई थी, तब उनकी बेटी बहुत छोटी थी, और अब वह उनके बराबर खड़ी है। इस एक वाक्य में उन्होंने उस समय के बोझ को बयां कर दिया जो उन्होंने अपनों से दूर रहते हुए काटा था। जेल में रहते हुए उन्होंने अपने बच्चों को बड़े होते हुए नहीं देखा, अपने माता-पिता के साथ समय नहीं बिताया, और समाज से पूरी तरह कट गए थे। लेकिन आज, जब उन्हें आजादी मिली, तो उनके चेहरों पर एक नई चमक और उम्मीद की किरण साफ दिख रही थी।
आंखों में आंसू और उम्मीद: जब रीवा जेल से किन बंदियों को रिहा किया गया
स्वतंत्रता दिवस की दोपहर, जब जेल के गेट खुले और एक-एक करके 18 बंदी बाहर आए, तो पूरा माहौल भावुक हो उठा। सामने खड़े परिजनों ने उन्हें फूलों की माला पहनाई और गले से लगा लिया। यह दृश्य किसी फिल्म के क्लाइमेक्स जैसा था, जहां सालों बाद बिछड़े हुए पात्र फिर से मिल रहे थे। बंदियों और उनके परिजनों की आंखों में खुशी के आंसू छलक रहे थे, जो उनके दिल में दबे दर्द और सालों की दूरी को बयां कर रहे थे। उन्हें देखकर ऐसा लगा ही नहीं कि वे वर्षों से जेल में थे। उनके चेहरों पर एक नई रोशनी थी, एक नई जिंदगी की उम्मीद थी।
रीवा जेल से किन बंदियों को रिहा किया गया, उनकी पूरी सूची यहाँ दी गई है:
- मुन्ना साहू पिता दीनबंधु निवासी अल्हवा थाना हनुमना जिला रीवा
- पप्पू उर्फ माधव पिता केमला वासुदेव निवासी बटुरा थाना अमलई जिला शहडोल
- भानू वासुदेव पिता मंगल वासुदेव निवासी बटुरा थाना अमलई जिला शहडोल
- राजा विश्वकर्मा पिता देवदत्त विश्वकर्मा निवासी बम्हनी थाना चुरहट जिला सीधी
- सचिन नामदेव उर्फ ईलू पिता विष्णु प्रसाद नामदेव निवासी विकास नगर थाना कोतमा जिला अनूपपुर
- कल्याण सिंह उर्फ मुन्ना सिंह पिता डोमारू सिंह निवासी देवरी नम्बर एक छपरा टोला थाना बुढ़ार जिला शहडोल
- सिन्टू बैगा पिता स्वर्गीय रामनाथ बैगा निवासी कन्ना बहरा थाना पाली जिला उमरिया
- शैलेन्द्र सिंह उर्फ शेलू पिता नरेन्द्र सिंह निवासी रामनई थाना रायपुर कर्चुलियान जिला रीवा
- रविशंकर उर्फ रवि पिता केशव प्रसाद निवासी विक्रमपुर थाना बुढ़ार जिला शहडोल
- रामाधीन साकेत पिता शेषमणि साकेत निवासी रेही थाना जियावन जिला सिंगरौली
- शिवदयाल सिंह गोंड पिता चौखेलाल सिंह गोंड निवासी सलदा थाना गोहपारू जिला शहडोल
- कतकू पाव पिता ठेपाली पाव निवासी कर्रावन थाना जैतपुर जिला शहडोल
- शंकर सिंह पिता प्रताप सिंह गोंड निवासी टिकुरा पठारी थाना उमरिया जिला उमरिया
- भारत सिंह गोंड पिता ताल्हन उर्फ तल्हन सिंह निवासी बदौड़ी थाना जैतपुर जिला शहडोल
- हरिदीन पिता ताल्हन उर्फ तल्हन सिंह गोंड निवासी बदौड़ी थाना जैतपुर जिला शहडोल
- सुरेश यादव पिता जगमोहन यादव पड़रिया थाना कोतवाली जिला सीधी
- हिरिया बाई पति मोतीलाल बंजारा निवासी सिलपरी थाना जयसिंह नगर जिला शहडोल
- जागेश्वर प्रसाद साहू पिता स्वर्गीय बीरबल साहू निवासी खुटार थाना बैढऩ जिला सिंगरौली
ये सभी वे चेहरे हैं जिन्हें अब समाज में फिर से घुलने-मिलने का मौका मिला है।
वादा और विदाई: जेल अधीक्षक ने क्यों कहा कि जेल से बाहर आकर क्या करें
जेल से रिहाई के अंतिम क्षण भी बेहद खास थे। जेल अधीक्षक ने सभी बंदियों को मिठाई और उनकी रिहाई का प्रमाण-पत्र देकर विदा किया। यह सिर्फ एक औपचारिकता नहीं थी, बल्कि एक नया जीवन शुरू करने का संदेश था। जेल अधीक्षक ने उनसे भविष्य में अपराध से दूर रहने का वायदा लिया। उन्होंने बंदियों को यह भी समझाया कि जेल से बाहर आकर क्या करें। यह एक महत्वपूर्ण सवाल है, क्योंकि सालों तक समाज से कटे रहने के बाद बाहरी दुनिया में खुद को फिर से स्थापित करना एक बड़ी चुनौती होती है। जेल प्रशासन ने उन्हें यह समझाया कि अब उन्हें समाज में एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में रहना है, अपने परिवारों का सहारा बनना है और कभी भी उस रास्ते पर वापस नहीं जाना है जिसने उन्हें जेल तक पहुंचाया था।
इन बंदियों के लिए यह क्षण एक नया अध्याय शुरू करने का था। अब वे अपने परिवार और समाज के साथ मिलकर एक नई पहचान बना सकते हैं। यह सिर्फ 18 बंदियों की रिहाई नहीं थी, बल्कि यह सुधार और क्षमा का एक उदाहरण था, जो समाज को एक बेहतर दिशा में ले जाता है।
इंसानी जीवन का दूसरा मौका: स्वतंत्रता दिवस पर कैदियों को क्यों छोड़ते हैं
बहुत से लोग यह सोचते हैं कि स्वतंत्रता दिवस पर कैदियों को क्यों छोड़ते हैं? यह परंपरा बहुत पुरानी है और इसका एक गहरा दार्शनिक महत्व है। स्वतंत्रता दिवस न केवल राजनीतिक आजादी का प्रतीक है, बल्कि यह मानवीय आजादी और दया का भी प्रतीक है। सरकार इस दिन उन बंदियों को दूसरा मौका देती है जिन्होंने जेल में रहकर अपने अपराध पर पछतावा किया और खुद में सुधार लाया। यह एक तरह से समाज की तरफ से उन्हें दी गई माफी है, ताकि वे फिर से मुख्यधारा में लौट सकें और एक सामान्य जीवन जी सकें।
यह प्रक्रिया बंदियों को यह विश्वास दिलाती है कि यदि वे अपने व्यवहार में सुधार करते हैं, तो उन्हें सजा से मुक्ति मिल सकती है। यह जेलों को सिर्फ सजा देने का केंद्र नहीं, बल्कि सुधार गृह भी बनाता है। मुन्ना साहू, राजा विश्वकर्मा, हिरिया बाई और अन्य बंदियों की रिहाई इसी दर्शन का परिणाम है। उनके चेहरों पर खुशी, उनके परिजनों की आंखों में आंसू, और उनके दिलों में एक नई उम्मीद - यह सब इस बात का प्रमाण है कि स्वतंत्रता दिवस पर कैदियों को रिहा करने की यह परंपरा कितनी महत्वपूर्ण है। यह समाज को भी एक संदेश देता है कि गलती करने वाले व्यक्ति को सुधार का एक मौका जरूर मिलना चाहिए।
एक बंदी की अधूरी कहानी: जब छूट गई आज़ादी की राह
जहां 18 बंदियों के लिए यह दिन खुशियों से भरा था, वहीं एक बंदी के लिए यह पल निराशाजनक रहा। कुल 19 बंदियों की रिहाई की योजना थी, लेकिन एक बंदी जुर्माना की राशि जमा नहीं कर पाया। इस कारण, उसे फिलहाल जेल में ही रहना पड़ेगा। उसकी रिहाई की उम्मीद अभी भी बनी हुई है, लेकिन फिलहाल उसके लिए यह एक कड़वा सच था कि आजादी का दरवाजा खुला, लेकिन वह अंदर नहीं जा पाया। यह घटना यह भी दिखाती है कि कानूनी प्रक्रिया और आर्थिक स्थिति कैसे किसी व्यक्ति की आजादी में बाधा बन सकती है।
इस घटना ने 18 परिवारों में खुशियां लाईं, जबकि एक परिवार अभी भी अपने सदस्य की वापसी का इंतजार कर रहा है। उम्मीद है कि जल्द ही उसकी भी रिहाई हो जाएगी और वह भी अपने परिवार के साथ मिलकर खुली हवा में सांस ले पाएगा।