रीवा में 4 दिन का हाई-वोल्टेज ड्रामा खत्म! आधी रात को फिर दहाड़ा 'विंध्य का शेर', प्रशासन को मानना पड़ा सम्मान

 
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ऋतुराज द्विवेदी, रीवा/भोपाल। (राज्य ब्यूरो) रीवा में पिछले कुछ दिनों से विंध्य क्षेत्र के कद्दावर नेता और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष, स्वर्गीय श्रीनिवास तिवारी की प्रतिमा स्थापना को लेकर जो गतिरोध बना हुआ था, वह अब समाप्त हो गया है। प्रशासन और मूर्ति स्थापना समिति के बीच आपसी सहमति के बाद, प्रतिमा को उसी स्थान पर स्थापित कर दिया गया है, जहाँ के लिए पहले निर्णय लिया गया था। शनिवार देर रात इस कार्य को अंजाम दिया गया, जिससे पिछले चार दिनों से चली आ रही खींचतान और राजनीतिक बहस पर विराम लग गया। यह घटनाक्रम रीवा की राजनीति में श्रीनिवास तिवारी के प्रभाव और सम्मान को एक बार फिर दर्शाता है।

श्रीनिवास तिवारी की मूर्ति स्थापना का पूरा घटनाक्रम क्या था?
यह विवाद तब शुरू हुआ जब श्रीनिवास तिवारी की 100वीं जन्म शताब्दी के अवसर पर उनकी प्रतिमा स्थापित करने का कार्य पुलिस लाइन चौराहे पर शुरू किया गया। बुधवार को अचानक पुलिस विभाग के अधिकारियों ने मौके पर पहुँचकर चल रहे निर्माण कार्य को यह कहते हुए रोक दिया कि उक्त भूमि पुलिस विभाग की है और यहाँ किसी भी प्रकार का निर्माण या मूर्ति स्थापना नहीं की जा सकती।

पुलिस ने क्यों रोका था काम और कैसे बढ़ा विवाद?
पुलिस प्रशासन द्वारा भूमि को अपना बताने और काम रोकने के बाद मामला तूल पकड़ गया। श्रीनिवास तिवारी के समर्थक और कांग्रेस पार्टी के नेता इस कार्रवाई के विरोध में उतर आए। उनका तर्क था कि मूर्ति स्थापना के लिए स्थान का चयन काफी पहले हो चुका था और इसके लिए आवश्यक प्रक्रिया का पालन भी किया गया था। पुलिस की इस अचानक कार्रवाई को उन्होंने राजनीतिक द्वेष और स्वर्गीय तिवारी का अपमान बताया। कांग्रेस नेताओं ने स्पष्ट चेतावनी दी कि यदि प्रशासन ने अपना अड़ियल रवैया नहीं छोड़ा तो 17 सितंबर को रीवा की जनता स्वयं यह तय करेगी कि उनके प्रिय नेता की मूर्ति कहाँ स्थापित होगी। इस घोषणा ने प्रशासन पर दबाव बढ़ा दिया और मामला शहर में चर्चा का मुख्य विषय बन गया।

इस विवाद पर भाजपा और अन्य नेताओं की क्या प्रतिक्रिया थी?

मामले के राजनीतिक रूप से संवेदनशील होने के कारण भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेताओं की प्रतिक्रिया भी सामने आई। रीवा के सांसद जनार्दन मिश्रा ने एक संतुलित बयान देते हुए कहा कि उन्हें श्रीनिवास तिवारी की मूर्ति स्थापना से कोई आपत्ति नहीं है और इसका विरोध नहीं होना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि इस मुद्दे को अनावश्यक रूप से राजनीतिक तूल नहीं दिया जाना चाहिए। उनकी सलाह थी कि मूर्ति लगाने वाली संस्था और जिला प्रशासन को बैठकर आपसी सहमति से स्थान का निर्धारण करना चाहिए ताकि किसी प्रकार का विवाद न रहे। इस बयान ने तनावपूर्ण माहौल को कुछ हद तक शांत करने और समाधान का मार्ग प्रशस्त करने में मदद की।

अंततः विवाद का समाधान कैसे निकला?
कांग्रेस के कड़े रुख और भाजपा के नरम रवैये के बाद प्रशासन पर मामले को जल्द से जल्द सुलझाने का दबाव बन गया था। शनिवार को नगर निगम और जिला प्रशासन की एक संयुक्त टीम मौके पर पहुँची।

प्रशासन ने कैसे की मध्यस्थता और कहाँ लगी मूर्ति?
अधिकारियों ने सबसे पहले उस भूमि की नए सिरे से नापजोख की, जिसे लेकर विवाद उत्पन्न हुआ था। गहन जाँच और दस्तावेज़ों के सत्यापन के बाद यह पाया गया कि जिस स्थान पर मूर्ति का स्ट्रक्चर बनाया जा रहा था, वह भूमि पुलिस की बताई जा रही सीमा के अंतर्गत नहीं आती थी। नापजोख पूरी होने के बाद प्रशासन ने उसी पूर्व-निर्धारित स्थान पर मूर्ति लगाने की अनुमति प्रदान कर दी। यह निर्णय होते ही श्रीनिवास तिवारी के समर्थकों में खुशी की लहर दौड़ गई। प्रशासन से हरी झंडी मिलते ही, बिना किसी देरी के, शनिवार देर रात क्रेन की मदद से प्रतिमा को पूरी सावधानी और सम्मान के साथ स्थापित कर दिया गया। इस प्रकार, चार दिनों से चल रहा यह हाई-प्रोफाइल विवाद शांतिपूर्ण ढंग से समाप्त हो गया।

श्रीनिवास तिवारी कौन थे और उन्हें 'विंध्य का शेर' क्यों कहा जाता है?
श्रीनिवास तिवारी (Shriniwas Tiwari) मध्य प्रदेश की राजनीति का एक ऐसा नाम हैं, जिन्हें किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है। उन्हें प्यार और सम्मान से 'दादा' और 'विंध्य का सफ़ेद शेर' (White Tiger of Vindhya) कहा जाता था। उनका जन्म 17 सितंबर, 1926 को हुआ था। वे एक प्रखर समाजवादी नेता, एक कुशल प्रशासक और एक बेबाक वक्ता थे।

उनका राजनीतिक जीवन काफी लंबा और प्रभावशाली रहा। वे कई बार विधायक चुने गए और मध्य प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष भी रहे। विधानसभा अध्यक्ष के रूप में उनके कार्यकाल को आज भी नियमों और परंपराओं के सख्त पालन के लिए याद किया जाता है। उनकी कार्यशैली ऐसी थी कि सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, हर कोई उनका सम्मान करता था। रीवा और সমগ্র विंध्य क्षेत्र के विकास के लिए उनके योगदान को आज भी याद किया जाता है। उनकी मजबूत राजनीतिक पकड़ और निडर व्यक्तित्व के कारण ही उन्हें 'शेर' की उपाधि दी गई थी।

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